मोहन भागवत ने यह बयान ‘ज्ञान सभा’ नामक राष्ट्रीय शिक्षा संगोष्ठी में दिया।


मोहन भागवत ने कहा, “भारत’ सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि देश की पहचान है। यह एक ‘प्रॉपर नाउन’ (विशेष संज्ञा) है और इसे अनुवादित नहीं किया जाना चाहिए। ‘इंडिया दैट इज भारत’ कहना ठीक है, लेकिन भारत तो भारत ही है। इसलिए लिखते और बोलते समय हमें भारत को भारत ही कहना चाहिए… भारत, भारत ही रहना चाहिए। इसमें किसी तरह का कोई बदलाव नहीं होना चाहिए।”
मोहन भागवत ने चेताया- ‘अगर कोई राष्ट्र अपनी असली पहचान खो देता है, तो…’
मोहन भागवत ने जोर देकर कहा कि भारत को जो वैश्विक सम्मान मिल रहा है, उसकी जड़ें ‘भारतीयता’ में हैं। उन्होंने चेताया कि अगर कोई राष्ट्र अपनी असली पहचान खो देता है, तो चाहे उसमें कितनी भी योग्यताएं क्यों न हों, उसे सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलती।
उन्होंने कहा, “अगर आप अपनी पहचान खो देते हैं, तो चाहे आपके पास कितनी भी प्रतिभाएं हों, दुनिया में ना तो सम्मान मिलेगा और ना ही सुरक्षा। यही सार्वभौमिक नियम है।”
मोहन भागवत बोले- भारत ने कभी किसी की जमीन पर कब्जा नहीं किया!
मोहन भागवत ने भारत के शांतिप्रिय और अहिंसक इतिहास की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि भारत ने कभी भी विस्तारवादी या शोषणकारी नीति नहीं अपनाई।
मोहन भागवत ने कहा, “विकसित भारत, विश्व गुरु भारत कभी युद्ध का कारण नहीं बनेगा और ना ही कभी किसी का शोषण करेगा। हम पैदल, छोटी नावों में मेक्सिको से लेकर साइबेरिया तक गए, लेकिन कभी किसी की जमीन पर कब्ज़ा नहीं किया, किसी का राज्य नहीं छीना। हम सबको सभ्यता सिखाने गए थे।”
उन्होंने भारत की ज्ञान परंपरा और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसे विचारों का ज़िक्र करते हुए कहा कि भारत की संस्कृति सत्य और सार्वभौमिक एकता पर आधारित रही है।
शिक्षा पर क्या बोले मोहन भागवत?
मोहन भागवत ने भारतीय शिक्षा प्रणाली पर भी अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि शिक्षा को भारत की सांस्कृतिक आत्मा से जोड़कर मूल्य आधारित शिक्षा प्रणाली अपनाई जानी चाहिए। उन्होंने कहा,”शिक्षा का एक छोटा उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके और अपने परिवार को संभाल सके।”
मोहन भागवत ने सनातन धर्म और हिंदू राष्ट्र पर की ये टिप्पणी
मोहन भागवत ने महर्षि अरविंद के विचारों का हवाला देते हुए कहा,”योगी अरविंद ने कहा था कि ईश्वर की इच्छा है कि सनातन धर्म का उत्थान हो और इसके लिए हिंदू राष्ट्र का पुनरुत्थान अनिवार्य है। आज की दुनिया को इस दृष्टि की जरूरत है। इसलिए पहले हमें समझना होगा कि भारत क्या है।”
अपने संबोधन के अंत में मोहन भागवत ने दोहराया कि भारत की शिक्षा प्रणाली को उसकी सभ्यतागत विरासत और राष्ट्रीय पहचान से जोड़े बिना भारत का भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकता।

