
ऐसे में आइए विस्तार से जानते हैं कि उत्तराखंड के प्रसिद्ध मंदिर


1. नैना देवी मंदिर (Naina Devi Temple)
धार्मिक मान्यता के अनुसार, यहां पर माता सती के नेत्र गिरे थे। इसी वजह इस मंदिर का नाम नैना देवी पड़ा। ऐसी मान्यता है कि नैना देवी के दर्शन करने से भक्त की सभी मुरादें पूरी होती हैं। नैना देवी मंदिर पहाड़ी और प्राचीन भारतीय मंदिर शैली की झलक देखने को मिलती है।
प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
2. मनसा देवी मंदिर (Mansa Devi Temple)
मनसा देवी मंदिर 51 शक्तिपीठ में शामिल है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस मंदिर में दर्शन करने से भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस मंदिर का निर्माण 1811 और 1815 के बीच हुआ था। यह मंदिर हरिद्वार में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि यहां माता सती का मस्तिष्क गिरा था, जिसके बाद इसी जगह पर मनसा देवी मंदिर बनाया गया।
3. सुरकंडा देवी मंदिर (Surkanda Devi Temple)
सुरकंडा देवी मंदिर 51 शक्तिपीठों में शामिल है। यह मंदिर उत्तराखंड के टिहरी जनपद में स्थित है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, जहां माता सती का सिर गिरा था। उसी जगह पर सुरकंडा मंदिर को बनाया गया। इस मंदिर में देवी काली की मूर्ति गर्भगृह में स्थापित है। इस मंदिर में भक्तों को प्रसाद के रूप में रौंसली की पत्तियां दी जाती हैं।
चंडी देवी मंदिर (Chandi Devi Temple)
51 शक्तिपीठों में शामिल चंडी देवी मंदिर हरिद्वार स्थित है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, मंदिर में चंडी देवी से वर प्राप्ति के लिए की गई कामना पूरी होती है। मान्यता है कि जहां पर चंडी देवी मंदिर है। इसी जगह पर चंडी देवी अवतरित हुईं थीं। मंदिर में पूजा और दर्शन करने से रोग और शत्रु से छुटकारा मिलता है।
नमो दैव्ये मंदिर (Namo Daivye Temple)
विशाल देवदार के वृक्षों से आच्छादित सरयू और रामगंगा नदी के मध्य स्थित भू भाग गंगोलीहाट में 5580 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ हाट कालिका मंदिर। आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा कीलित इस मंदिर का महात्म्य बहुत बड़ा है। यहां शक्ति के रूप में मां कालिका विराजमान हैं। मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही नई ऊर्जा का संचार होता है और स्वत: मानव अध्यात्म के लिए प्रेरित हो जाता है। हल्द्वानी से 193 किमी और टनकपुर से 165 किमी की दूरी पर स्थित है गंगोलीहाट। गंगोलीहाट में ही स्थित है प्रसिद्ध हाट कालिका मंदिर। हाट कालिका पर कुमाऊं रेजीमेंट के सैनिकों की भी अटूट श्रद्धा रहती है।
नमो दैव्ये मंदिर (Namo Daivye Temple)
विशाल देवदार के वृक्षों से आच्छादित सरयू और रामगंगा नदी के मध्य स्थित भू भाग गंगोलीहाट में 5580 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ हाट कालिका मंदिर। आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा कीलित इस मंदिर का महात्म्य बहुत बड़ा है। यहां शक्ति के रूप में मां कालिका विराजमान हैं। मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही नई ऊर्जा का संचार होता है और स्वत: मानव अध्यात्म के लिए प्रेरित हो जाता है। हल्द्वानी से 193 किमी और टनकपुर से 165 किमी की दूरी पर स्थित है गंगोलीहाट। गंगोलीहाट में ही स्थित है प्रसिद्ध हाट कालिका मंदिर। हाट कालिका पर कुमाऊं रेजीमेंट के सैनिकों की भी अटूट श्रद्धा रहती है।
इतिहास कहा जाता है कि छठी शताब्दी में जब आदिगुरु शंकराचार्य पशुपतिनाथ यात्रा पर आए तो गंगोलीहाट के पास घने देवदार के वृक्षों के बीच भंयकर अग्नि ज्वालाएं निकलने की सूचना मिली। जब शंकराचार्य दैवी जगदंबा की माया से मोहित होकर इस स्थान पर पहुंचे, तो गणेश मूति से आगे नहीं बढ़ पाए और अचेत हो गए। वह प्यास से बिलखने लगे और अहंभाव से बिलख रहे थे, तो एक नन्ही बालिका पहुंची और उन्हें जल पिलाया। चेतन अवस्था में लौटने के बाद आदि गुरु शंकराचार्य ने मंत्र शक्ति और योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किए और महाकाली के रौद्र रूप को शांत करने के लिए स्तुति कर कीलित किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों का जहाज जब समुद्र में डूबने लगा, तो कुमाऊं के सैनिकों ने मां हाट कालिका के जयकारे लगाते हुए जहाज को बचा लेने की प्रार्थना की और चमत्कारिक ढंग से पानी का जहाज धीरे-धीरे समुद्र के किनारे पहुंच गया। तभी से कुमाऊं रेजीमेंट के प्रत्येक सैनिक का विश्वास और अधिक बढ़ गया। मंदिर सुंदरीकरण में कुमाऊं रेजीमेंट का विशेष सहयोग रहा हैं। कुमाऊं रेजीमेंट प्रतिवर्ष नवरात्र में मंदिर में पूजा अर्चना करती है।
हाट कालिका प्रसन्न होने पर अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण कर उन्हें मुक्ति का भी वरदान देती है। पराविद्या, संसार बंधन और मोक्ष की यह सनातनी देवी है। अपने भक्तों को मुक्ति और शक्ति प्रदान करती है। वर्ष भर प्रतिदिन मंदिर में भक्तों की भीड़ रहती है। प्रतिदिन मां को भोग लगता है। नवरात्र की अष्टमी को विशेष पूजा होती है।
हाट कालिका की महिमा अपरंपार है। सच्चे मन से मां से विनती करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। देश के कोने-कोने से और विदेश से भी मां के दर्शनों के लिए भक्त पहुंचते हैं और मां के दर्शन कर उसका आशीर्वाद लेते हें। –
अटरिया मंदिर, रुद्रपुर: नवरात्रि मेला एवं मान्यता
अटरिया मंदिर उत्तराखंड के रुद्रपुर शहर में स्थित एक प्राचीन और प्रसिद्ध देवी मंदिर है, जिसे माँ दुर्गा के रूप में श्रद्धा से पूजा जाता है। यह मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व भी रखता है।
नवरात्रि मेला एवं उत्सव
अटरिया मंदिर में हर वर्ष नवरात्रि के दौरान एक भव्य मेला आयोजित किया जाता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु देशभर से दर्शन करने आते हैं। यह मेला विशेष रूप से चैत्र और शारदीय नवरात्रि में लगता है और नौ दिनों तक चलता है। इस दौरान भक्त माता की पूजा-अर्चना, भजन-कीर्तन, जागरण और कन्या पूजन करते हैं।
मंदिर परिसर और उसके आसपास कई दुकानें सजती हैं, जहाँ प्रसाद, धार्मिक वस्तुएँ, खिलौने, पारंपरिक वस्त्र और भोजन उपलब्ध होता है। बच्चों और परिवारों के मनोरंजन के लिए झूले, खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं।
मंदिर की पौराणिक मान्यता
अटरिया मंदिर से जुड़ी एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, इस मंदिर की स्थापना कुमाऊँ के चंद वंश के शासकों द्वारा करवाई गई थी। माना जाता है कि राजा रुद्र चंद जब इस क्षेत्र से गुजर रहे थे, तो उनकी रथ-यात्रा के दौरान पहिए कीचड़ में फंस गए। उन्होंने माँ दुर्गा से प्रार्थना की और संकट से उबरने के बाद यहाँ मंदिर बनवाया।
यह भी मान्यता है कि जो श्रद्धालु सच्चे मन से यहाँ माँ अटरिया देवी की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएँ अवश्य पूर्ण होती हैं। खासकर नवरात्रि में यहाँ पूजा करने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है और कष्टों का निवारण होता है।
अटरिया मंदिर श्रद्धालुओं के लिए आस्था और विश्वास का केंद्र है। नवरात्रि मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि स्थानीय संस्कृति और परंपराओं का उत्सव भी है। हर साल इस मेले में भक्तगण माँ दुर्गा की कृपा प्राप्त करने और अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु उमड़ते हैं।
नंदा देवी मंदिर: अल्मोड़ा में स्थित “नंदा देवी मंदिर” का एक विशेष धार्मिक महत्व है। यह मंदिर चंद वंश की “ईष्ट देवी” मां नंदा देवी को समर्पित है। मां नंदा देवी को “बुराई के विनाशक” के रूप में माना जाता है। इसका इतिहास 1000 साल से भी ज्यादा पुराना है।
पूर्णागिरी मंदिर: चम्पावत में “मां पूर्णागिरि” का दरबार है। जो काली नदी के दांये किनारे पर स्थित है। टनकपुर से 19 किलोमीटर दूर यह शक्तिपीठ मां भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। यह अन्नपूर्णा चोटी के शिखर में लगभग 3000 फीट की उंचाई पर स्थापित है।
नैनादेवी मंदिर: यह मंदिर नैनीताल झील के उत्तरी छोर पर है। मान्यता है कि यहां आने वालों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। श्रावण अष्टमी व नवरात्रों में यहां मेला लगता है। यह देवी 51 शक्तिपीठों में से एक हैं। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे।
हाट कालीका मंदिर: पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट में प्रसिद्ध सिद्धपीठ हाट कलिका मंदिर है। यह भारतीय सेना के कुमाऊँ रेजीमेंट की आराध्य देवी हैं, जो रणभूमि में जवानों की रक्षक करती हैं। मान्यता है कि माता के दरबार में श्रद्धा पूर्वक पूजा अर्चनाकरने से माता समस्त रोग, शोक, दरिद्रता व विपदाओं को हर लेती हैं। मान्यता अनुसार माता हर रात यहां विश्राम करती हैं, जिससे हर रोज बिछाए जाने वाले बिस्तर में सुबह सिलवटें देखने को मिलती हैं। स्कंदपुराण के मानसखंड में भी इस मंदिर का वर्णन मिलता है।
कसारदेवी मंदिर: अल्मोड़ा में स्थित कसारदेवी मंदिर की ‘असीम’ शक्ति से नासा के वैज्ञानिक भी हैरान रह गए। अपनी अद्भुत चुंबकीय शक्ति के लिए प्रसिद्ध यह स्थान ध्यान और योग के लिए आदर्श माना जाता है। मां कत्यायनी माता के प्रकट होने के प्रमाण यहां की चट्टान में साफ दिखते हैं। माँ कत्यायनी, देवी दुर्गा का छठवां रूप हैं। यहां तक कि स्कंद पुराण में भी कसार देवी मंदिर के महत्व का वर्णन मिलता है।
ये सभी मंदिर हमारी आस्था और विश्वास के प्रतीक हैं, वैसे भी देवी मां को पहाड़ों वाली माता ही कहा जाता है। भगवान शिव की अर्धांगिनी होने के कारण इनका भी वास यहीं है। मां भगवती की हमारी देवभूमि पर असीम कृपा है। ऐसे में वह यहां कई स्थानों पर अपने कई रूप धारण कर विराजमान हैं।
