
क्या यह साफतौर पर सरकार के भीतर राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव को प्रदर्शित नहीं करता कि वह किसानों की मांग को लेकर इस हद तक अगंभीर दिख रही है कि आंदोलन के एक नेता की सेहत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है, उनके जीवन पर खतरा बढ़ता जा रहा है और वह हल के लिए सहमति बनाने के बजाय समस्या की अनदेखी करने में लगी है।


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
सवाल है कि आखिर किन वजहों से वह फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कानूनी गारंटी पर स्थिति स्पष्ट नहीं करना चाहती है और उसका यह रुख किसके हित में है। गौरतलब है कि एक ओर किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल पिछले पैंतालीस दिनों से अनशन पर हैं और उनकी हालत लगातार नाजुक बनी हुई है, दूसरी ओर, इसी मसले पर सरकार द्वारा मांगे नहीं मानने की वजह से बीते तीन हफ्ते के भीतर दो किसानों ने आत्महत्या कर ली।
यह समझना मुश्किल है कि एक लोकतांत्रिक सरकार इस हद तक उदासीन कैसे हो सकती है कि अपनी समस्याओं की अनदेखी किए जाने की वजह से किसानों के जान देने की खबरें आ रही है, वहीं उनके नेता का जीवन भी जोखिम में है। अगर किसानों के संगठित आंदोलन के सामने ऐसे चुनौतीपूर्ण हालात पैदा हो रहे हैं, तो बाकी मसलों के संदर्भ में अंदाजा लगाया जा सकता है। डल्लेवाल के अनशन और उनकी सेहत को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी चिंता जाहिर कर चुका है।
मगर इसके बावजूद सरकार कोई ऐसी राह तलाशने को लेकर उत्सुक नहीं दिख रही है, जिससे किसान आंदोलन की मांगों पर सभी पक्षों के बीच कोई सहमति कायम हो सके और डल्लेवाल अपना अनशन फिलहाल खत्म करें। अगर सरकार फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित किए जाने के मसले पर ईमानदार है तो वह इस संबंध में कानूनी गारंटी का प्रावधान करने से क्यों हिचक रही है? जबकि खुद एक संसदीय समिति भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी देने की वकालत कर चुकी है।
मौजूदा दौर में खेती-किसानी के सामने बढ़ती चुनौतियां किसी से छिपी नहीं है। बाजार के बदलते ढांचे के बीच किसानों की बढ़ती समस्याओं को दूर करने के मकसद से नीतिगत पहल करना सरकार को जरूरी नहीं लगता। उल्टे जिस तरह की व्यवस्था से किसान अपनी असहमति जताते हैं, भविष्य में उसके घातक परिणाम बताते हैं, सरकार को उस ओर कदम बढ़ाने में कोई हिचक नहीं होती।
पिछली बार किसानों के कई महीने चले आंदोलन के बाद सरकार को विवश होकर विवादित तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी थी। तब यह उम्मीद की गई थी कि अब सरकार किसानों के साथ मिल-बैठ कर इस समस्या पर सहमति के बिंदुओं की तलाश करेगी और कोई ठोस हल उभर कर सामने आएगा। मगर यह अफसोस की बात है कि किसानों को अब भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी के लिए लड़ाई लड़नी पड़ रही है और सरकार ने लगातार टालमटोल का रवैया अख्तियार किया हुआ है। सरकार और किसानों के बीच चल रही यह खींचतान की स्थिति अब एक नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है। सरकार को चाहिए कि वह समय रहते इस समस्या के समाधान को लेकर कोई ठोस पहल करे।
