
6-7 मई की रात जब देश गहरी नींद में था, भारत की सशस्त्र सेनाएं सतर्क थीं। 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए जघन्य आतंकी हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की मौत ने पूरे देश को झकझोर दिया था। जवाब में भारत सरकार और सेना ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत सीमा पार जाकर आतंकवाद के गढ़ों को ध्वस्त कर दिया। यह सिर्फ एक सैन्य कार्रवाई नहीं थी, बल्कि भारत की बदलती सैन्य सोच, आत्मसम्मान और निर्णायक नेतृत्व का परिचायक था।


ऑपरेशन सिंदूर: भारत का नया प्रतिकार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा — “ये करना ही था, देश हमारी ओर देख रहा था।” 25 मिनट में चला यह ऑपरेशन ,भारती सेना की दक्षता और तैयारी का परिचायक बना। लश्कर-ए-तैयबा के मुरीदके स्थित हेडक्वार्टर और जैश-ए-मोहम्मद के बहावलपुर लॉन्चिंग पैड सहित 9 आतंकी ठिकाने पूरी तरह तबाह कर दिए गए। रिपोर्ट्स के अनुसार, 100 से अधिक आतंकवादी मारे गए। इस कार्रवाई ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब कूटनीतिक बयान नहीं, निर्णायक वार में विश्वास करता है।
कांग्रेस की ‘सबूतवादी’ राजनीति:
जब पूरा देश सेना के शौर्य पर गर्व कर रहा था, तब कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने कहा — “क्या हर एक आतंकी मारा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैबिनेट बैठक में स्पष्ट शब्दों में कहा—“ये करना ही था, देश हमारी ओर देख रहा था। हमें अपनी सेना पर गर्व है।” यह कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं थी, यह एक राष्ट्र के आत्मसम्मान की घोषणा थी। लश्कर-ए-तैयबा के मुरीदके हेडक्वार्टर, जैश-ए-मोहम्मद के बहावलपुर लॉन्चिंग पैड समेत 9 ठिकानों पर किए गए हमलों में 100 आतंकवादियों के मारे जाने की खबरें आईं। यह कोई छोटी बात नहीं है, यह उस भारत की छवि है जो अब चुप नहीं बैठता।
लेकिन जब पूरा देश इस ऐतिहासिक कार्रवाई पर सेना को सलाम कर रहा था, तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी सवाल पूछ रहे थे—“क्या हर एक आतंकी मारा गया? क्या फिर कोई पहलगाम नहीं होगा?” यह सवाल पूछना नहीं, सेना की वीरता पर संदेह जताना है। यह वही नीति है जिसकी वजह से 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 की बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद भी कांग्रेस नेताओं ने सबूत मांगे थे।
कांग्रेस की यह “सबूतवादी” राजनीति अब “राष्ट्रवादी” भारत को गवारा नहीं। जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि “आतंक की जमीन को समूल नष्ट कर दिया जाएगा,” तो पूरा देश उनके साथ खड़ा होता है, लेकिन कांग्रेस उस समय भी मौन संदेह का घूंघट ओढ़कर देश को भ्रमित करने की कोशिश करती है।
कंचन गुप्ता ने बिल्कुल सही कहा—“बेईमान कांग्रेस एक बार फिर हवाई हमलों के सबूत मांग रही है।” वास्तव में, यह एक मनोवैज्ञानिक और वैचारिक विघटन है, जहां सेना का मनोबल गिराने के लिए राजनीतिक बयान दिए जाते हैं, न कि राष्ट्रीय एकता के लिए।
जब सेना की प्रेस ब्रीफिंग में कर्नल सोफिया कुरैशी जैसी अधिकारी देश को बता रही थीं कि कैसे यह मिशन 25 मिनट में सफलता पूर्वक पूरा हुआ, तो राष्ट्र को गर्व था। लेकिन कांग्रेस के लिए यह एक ‘औपचारिकता’ भर था।
सवाल ये उठता है कि जब सेना सीमाओं पर खून बहा रही हो, जब प्रधानमंत्री देश का सिर गर्व से ऊँचा कर रहे हों, तब भी कांग्रेस को ‘वोट बैंक’ और ‘विरोध की परंपरा’ से फुर्सत क्यों नहीं मिलती?
राशिद अल्वी जैसे नेता जब पाकिस्तान से व्यापार बंद करने को ‘दिखावटी कदम’ कहते हैं, तो समझ में आता है कि कांग्रेस की रणनीति केवल मोदी विरोध तक सीमित नहीं, बल्कि भारत की सैन्य नीतियों को भी कमजोर करने की मंशा से ग्रसित है।
आज का भारत हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब मिलकर एकजुट होकर आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है, लेकिन कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व उस एकता में दरार डालने की कोशिश कर रहा है
जनता अब सबूत नहीं, नेतृत्व चाहती है। और वह नेतृत्व मोदी में उसे साफ दिखाई दे रहा है।”
