
उनके इस बयान के बाद बद्रीनाथ धाम के तीर्थ पुरोहित पंडा समाज और वहां के स्थानीय लोगों में आक्रोश दिखाई दे रहा है.


शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता
किसका है उर्वशी मंदिर?
असल में बद्रीनाथ धाम के समीप बामणी गांव में मां उर्वशी देवी का मंदिर मौजूद है. लेकिन, यह उर्वशी रौतेला का नहीं बल्कि स्वर्ग की सबसे सुंदर, गायन और नृत्य में निपुण उर्वशी अप्सरा का मंदिर है. देवी उर्वशी कई पौराणिक कथाओं में केंद्रीय किरदार के तौर पर रही हैं और पुराणों में उनका जिक्र अलग-अलग संदर्भों में आया है. उनका जन्म नहीं बल्कि उत्पत्ति हुई थी. भगवान विष्णु के एक अवतार नर और नारायण के जरिए वह अस्तित्व में आई थीं और आदि शक्ति देवी का ही एक स्वरूप थीं. बद्रीनाथ में भी उनके मंदिर में देवी की पूजा देवी सती के एक स्वरूप के तौर पर ही होती है.
ऋग्वेद में मिलता है उर्वशी का जिक्र
उर्वशी के संपूर्ण अस्तित्व को समझने के लिए वेदों की ओर चलना होगा, जहां उनकी मौजूदगी सिर्फ सौंदर्य के प्रतिमान के तौर पर नहीं है, बल्कि वह ज्ञान (संगीत और नृ्त्य) का ही एक स्वरूप हैं. ऋग्वेद के दशम मंडल में उनका जिक्र जिस तरीके से आता है, उससे यह लगता है कि सभ्यता के उस शुरुआती दौर में देवी सरस्वती की कृपा से एक विदुषी स्त्री ने लोगों में दया-करुणा और निश्छल प्रेम के भाव को जागृत करने के लिए संगीत के ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया होगा. इसीलिए बाद की कई पौराणिक कथाओं में उर्वशी को संगीत की प्रधान शिक्षिका के तौर पर ही पहचाना गया है.
नृत्य विधा, मार्शल आर्ट और उर्वशी
इसका उदाहरण महाभारत में मिलता है, जहां दिव्यास्त्रों की खोज में निकले अर्जुन को उर्वशी एक वर्ष तक नृत्य की शिक्षा देती हैं और यह कहती हैं कि योद्धा के शरीर में स्फूर्ति, लचक और जिस तेजी की आवश्यकता होती है, वह नृत्य के अभ्यास से ही आ सकती है. कलरियपट्टू जो कि मार्शल आर्ट का सबसे प्राचीन फॉर्म है, वह भारत की 5000 साल पुरानी नृत्य विधा से ही निकला है.
पुरुरवा उर्वशी संवाद सूक्त
ऋग्वेद के दशम में मंडल में उर्वशी का पहली बार जिक्र आता है. पुरुरवा-उर्वशी संवाद सूक्त ऋग्वेद (10/95) में पाया जाता है. इस सूक्त के ऋषि हैं, पुरुरवा तथा देवता उर्वशी हैं. यह सूक्त त्रिष्टुप छंद में लिखा गया है. साधारण तौर पर देखें तो इस सूक्त में पुरुरवा और उर्वशी का संवाद है, यानी उनके बीच की बातचीत है. ऋग्वेद में आयी वैदिक संस्कृति की पहली कथा उर्वशी और राजा पुरुरवा की कथा है. यह संवाद शतपथ ब्राह्मण, विष्णुपुराण और महाभारत में भी मिलता है, बल्कि यह संवाद महाभारत की कथा के कई आधारों में से एक है, क्योंकि कुरु राजाओं का चंद्रवंश इस कथा से जन्म लेता है और इसी संवाद को कालिदास ने अपने नाटक ‘विक्रमोर्वशीय’ का कथानक भी बनाया.
सा वसु दधती श्वशुराय वय उषो यदि वष्ट्यन्तिगृहात्
अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन॥॥
त्रिः स्म माह्न: श्नथयो वैतसेनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि
पुरूरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्व१स्तदासीः॥॥
या सुजूर्णिः श्रेणि: सुम्नआपिर्ह्रदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः
ता अञ्जयोऽरुणयो न सस्रुः श्रिये गावो न धेनवोऽनवन्त॥॥
समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नद्य१: स्वगूर्ताः
महे यत्त्वा पुरूरवो रणायावर्धयन्दस्युहत्याय देवाः॥॥
सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषो निषेवे
अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसन्रथस्पृशो नाश्वा:॥॥
कथा कुछ ऐसी है कि देवी पार्वती के श्राप से जब राजा एल स्त्री में बदल गया तो उसका नाम इला हो गया. इसी इला से चंद्रमा के पुत्र बुध ने विवाह किया और दोनों का एक पुत्र हुआ पुरुरवा. पुरुरुवा ने अपनी राजधानी इलावर्त बसाई और एक बड़े भूभाग का सम्राट बन गया. इधर एक दिन स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी, अपनी सखी चित्रलेखा के साथ पृथ्वी भ्रमण के लिए आई थी. इसी दौरान एक असुर ने उसका हरण कर लिया. उर्वशी ने जब रक्षा की गुहार लगाई, तो वन में शिकार खेल रहे पुरुरवा को यह पुकार सुनाई दी. पुरुरवा आवाज की दिशा में बढ़ा और उसने वीरता से असुर को परास्त कर उर्वशी को बचा लिया.
पुरुरवा से प्रेम और फिर उदासी
पुरुरवा की वीरता ने उर्वशी को मोह लिया तो वहीं पुरुरवा के मन में भी प्रेम का अंकुर फूट पड़ा. लेकिन स्वर्ग की मर्यादा में बंधी उर्वशी को वापस लौटना पड़ा. अब उर्वशी का स्वर्ग में मन न लगे और उधर राजा भी उसकी याद में खोया रहने लगा. स्वर्ग के राजा इंद्र को इसकी भनक पड़ गई. उन्होंने गंधर्वों को आदेश दिया कि वह उर्वशी की उदासी का हाल पता लगाएं. गंधर्वों ने पता करके सारा सच देवराज को सुनाया. इधर, एक दिन देवराज इंद्र के सामने नृत्य नाटिका प्रस्तुत करते हुए अपने प्रेमी पुरुरवा की याद में खोई थी.
उसे नृत्य नाटिका में गीत गाना था. ‘देवराज तुम हृदय के मेरे ताज’ लेकिन उर्वशी के मुख से देवराज की जगह पुरुराज निकल गया. तब नृत्यनाटिका के रचयिता भरत मुनि ने क्रुद्ध होकर उर्वशी को श्राप दे दिया कि तुमने जिसकी याद में मेरी नाटिका खराब की है, जाओ तुम उसी मनुष्य की भांति धरती पर रहो.
पुरुरवा के सामने उर्वशी ने रखी शर्त
अब उर्वशी के लिए यह दोहरी मार थी. इस तरह न तो उसे प्रेम मिलता और न ही वह स्वर्ग की अप्सरा ही रह पाती. उसने इंद्र से श्राप की मुक्ति की मांग की, असल में इंद्र भी नहीं चाहते थे कि उर्वशी स्वर्ग से जाए, इसलिए उन्होंने शर्त बांध दी कि, अगर तुमने और पुरुरवा ने एक-दूसरे को कभी बिना कपड़ों के देख लिया तो वह तुम दोनों के मिलन का अंतिम दिन होगा.
दुखी मन से उर्वशी पुरुरवा के पास आई. उसने कहा- मैं तुमसे प्रेम करूंगी, विवाह करूंगी, लेकिन एक शर्त पर. ‘मैं तुम्हें निर्वस्त्र कभी न देखूं’
पुरुरवा ने उसकी शर्त मान ली. दोनों सुख से रहने लगे, लेकिन सुख के दिन सिर्फ चार. उर्वशी के बिना स्वर्गलोक मौन हो गया था. इस तरह एक दिन गंधर्वों ने एक चाल चली. उर्वशी ने एक हिरणी के बच्चे को यूं ही पाल रखा था. वह उसे बहुत प्यार करती थी. हिरणी का मेमना उसके ही पलंग के पास बंधा था. एक रात गंधर्व उस मेमने को चुराकर भागने लगे तो मेमना आवाज करने लगा. इससे उर्वशी और पुरुरवा जो प्रेम में थे, वह जाग गए.
… और उर्वशी-पुरुरवा का हो गया वियोग
आधीरात को हुई इस घटना से उर्वशी ने घबराकर पुरुरवा से कहा, मेरे मेमने को बचा लीजिए स्वामी. यह सुनकर पुरुरवा झटके से उठ खड़ा हुआ और मेमने को पकड़ने के लिए झपटा. इस तेजी में उसे वस्त्रों का ध्यान नहीं रहा. इसी दौरान तेज बिजली चमकी. इससे पुरुरवा का नग्न शरीर उर्वशी के सामने आ गया और इस तरह दोनों का अलगाव हो गया. हालांकि उर्वशी जितने दिन पुरुरवा के पास रही, उन दिनों के फल से दोनों का एक तेजवान पुत्र हुआ आयु. इसी आयु से चंद्रवंश आगे बढ़ा.
राजा रवि वर्मा की चित्रकला में उर्वशी
पुरुरवा और उर्वशी की यह कथा भारतीय चित्रकला में भी स्वर्णिम हस्ताक्षर के तौर पर मौजूद है. मशहूर चित्रकार राजा रविवर्मा ने इस पेंटिंग को बड़े ही खूबसूरत आयाम दिए हैं. स्याह बैकग्राउंड में कड़कती बिजली का प्रकाश, पुरुरवा का शारीरिक सौष्ठव से भरा नग्न शरीर, मदमत्त यौवन से भरपूर स्वर्ग की ओर जाती उर्वशी और उसके चेहरे पर पुरुरवा को नग्न देख लेने की ग्लानि, उससे बिछड़ने का दुख, पुरुरवा का पश्चाताप, कैनवस पर यह सबकुछ आज भी इतना स्पष्ट है कि पेंटिंग के शोधछात्र राजा रविवर्मा की इस कृति पर रिसर्च करते हैं और उसमें नए एंगल, नए आयाम तलाश लेते हैं.
उर्वशी की उत्पत्ति की कथा
उर्वशी की इस दुखद प्रेम कहानी से पहले उसकी उत्पत्ति की कथा भी दिलचस्प है. भगवान विष्णु ने ब्रह्म और जीव के बीच के संबंध को समझाने के लिए नर और नारायण ऋषि के रूप में दो अवतार लिए थे. इसमें उनके नर रूप का नाम अर्जुन ऋषि था और नारायण वह खुद थे. यही नर और नारायण के अंश आगे के युग में कृष्ण और अर्जुन का अवतार लेने वाले थे. इसके लिए दोनों ही ऋषि बद्रीनाथ के गुप्त स्थान पर बर्फीली शिलाओं के बीच कठोर तप कर रहे थे.
नर-नारायण ऋषि का तप
10 हजार साल के कठोर तप के कारण उनका तेज स्वर्ग तक फैलने लगा. इंद्र को अपना इंद्रासन डोलता दिखा तो उसने दोनों ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन ऋषि टस से मस नहीं हुए. तब इंद्र ने समुद्र मंथन से निकली अपनी सुंदरतम अप्सरा रंभा को भेजा. उसके साथ तिलोत्तमा और घृताची नाम की अप्सरा भी आईं. तीनों ही मनमोहक नृत्य कर दोनों ऋषियों की तपस्या भंग करने की कोशिश करने लगी. इसी दौरान रंभा ने नारायण ऋषि को छू लिया.
नारायण ऋषि की जांघ से उत्पन्न हुई उर्वशी
इससे क्रोधित हुए नारायण ऋषि ने आंखें खोलीं और अपनी जांघ से एक बाल तोड़कर भूमि पर फेंक दिया. जांघ में जहां से बाल टूटा वहां से नृत्य करती हुई ऐसी दिव्य अप्सरा प्रकट हुई कि उसके तेज के आगे तीनों अप्सराओं का सौंदर्य फीका पड़ गया. संस्कृति में जांघ के लिए ‘उरु’ शब्द प्रयोग होता है. नारायण ऋषि ने इसी आधार पर इस कन्या को उर्वशी नाम दिया और स्वर्ग भेज दिया. तब देवराज ने उनसे क्षमा मांगी और वह समझ गया कि नर और नारायण ऋषि खुद भगवान विष्णु के ब्रह्म और जीव स्वरूप हैं, और आगे चलकर नर ऋषि ही उसके पुत्र अर्जुन के रूप में जन्म लेंगे.
कर्ण के जन्म का रहस्य
नर और नारायण ने इसी दौरान दम्भोद्धवा नाम के एक राक्षस से भी युद्ध किया था, जिसके पास 1000 सूर्य कवच थे. जब उसके 999 कवच टूट गए तब वह भागकर सूर्य की शरण में गया. सूर्यदेव ने उसकी प्राणों की रक्षा की, तब नारायण ऋषि ने कहा कि आज भले ही यह बच गया, लेकिन भविष्य में इसका वध हमारे ही हाथों से होगा. यही दम्भोद्धवा राक्षस द्वापरयुग में कर्ण बनकर जन्मा और कवच-कुंडल के साथ पैदा हुआ. महाभारत के युद्ध में उसका वध नारायण कृ्ष्ण के निर्देश पर नर अर्जुन ने किया था.
बद्रीनाथ में ही दो पर्वत भी मौजूद हैं, जिन्हें नर-नारायण के नाम से जाना जाता है. कहते हैं कि यह दोनों पर्वत समय आने पर कलयुग की समाप्ति का संकेत भी देंगे. जिस उर्वशी मंदिर का जिक्र एक्ट्रेस उर्वशी रौतेला कर रही थीं, वह इन्हीं पर्वतों की तलहटी घाटी में मौजूद है, जो नर-नारायण वाली कथा को सटीक बनाता है.
अर्जुन और उर्वशी
महाभारत में उर्वशी का जिक्र, एक बार फिर तब आता है, जब दिव्यास्त्रों की खोज में स्वर्ग पहुंचे अर्जुन की मुलाकात उर्वशी से होती है. इंद्र से दिव्यास्त्रों का ज्ञान लेकर लौट रहे अर्जुन को खुद देवराज ने कहा, वह अभी और यहां ठहरे और संगीत में भी निपुण होकर जाए, क्योंकि धरती पर युद्ध की विभीषिका के बीच संगीत ही ऐसा है जो सच्ची प्रार्थना है और असल में मन को शांत कर सकता है. इंद्र की बात मानकर अर्जुन ने चित्रसेन गंधर्व से गायन सीखा, वीर सेन से मृदंग वादन और खुद उर्वशी ने उसे नृत्य में प्रवीण बना दिया.
उर्वशी ने दिया अर्जुन को श्राप
इसी नृत्य शिक्षा के दौरान उर्वशी, अर्जुन पर मोहित हो गई. उसने अर्जुन से प्रणय निवेदन किया, लेकिन अर्जुन ने उसे यहकर ठुकरा दिया, आप मेरे वंश की जननी हैं, इसलिए मेरे लिए भी माता जैसी ही हैं और फिर आप गुरु भी हैं. इसलिए आपके साथ प्रणय के बारे में नहीं सोच सकता. इस तरह अर्जुन के बार-बार मना करने पर गुस्साई उर्वशी ने उसे नपुंसक हो जाने का श्राप दे दिया, लेकिन इंद्र के समझाने पर उसने इस श्राप की अवधि सिर्फ एक वर्ष कर दी. खैर, इस श्राप ने अर्जुन का काफी सहयोग किया और वह अज्ञातवास में वृहन्नला बनकर रह सका. इस दौरान अर्जुन ने संगीत शिक्षा का प्रसार किया और विराटा के राजा की पुत्री उत्तरा को नृत्य कला की शिक्षा भी दी.
उर्वशी की नृत्यकला के गहरे आयाम
उर्वशी की नृत्य कला को समझने के लिए भारतीय शास्त्रीय नृत्य की मूल भावना को समझना होगा, जिसमें नृत्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है. उर्वशी का नृत्य उनके सौंदर्य का पूरक है. कालिदास ने उनके नृत्य को “कमल की पंखुड़ियों पर नाचती बूंदों” के समान वर्णित किया है, जो उनकी कोमलता और शुद्धता को दर्शाता है. भारतीय नृत्य में “रस” और “भाव” का विशेष महत्व है. उर्वशी का नृत्य नौ रसों (शृंगार, करुण, वीर, आदि) को जीवंत करने में सक्षम था. विशेष रूप से शृंगार रस (प्रेम और सौंदर्य) में उसकी महारत थी, जो उनकी प्रेम कहानियों से भी झलकता है.
कालिदास के नाट्य साहित्य में उर्वशी
उनकी कला में भावनात्मक गहराई ऐसी थी कि वह दर्शकों के मन को छू लेती थी. विक्रमोर्वशीयम् में उनके नृत्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनके हाव-भाव से प्रेम, वियोग और मिलन की भावनाएं जीवंत हो उठती थीं. उनकी निपुणता का एक उदाहरण विक्रमोर्वशीयम् में देखा जा सकता है, जहां वह संगीत के साथ ताल मिलाकर नृत्य करती हैं, और उसकी गलती केवल भावनात्मक होती है, न कि तकनीकी अक्षमता के कारण. बल्कि उसकी वह गलती भी नाटिका के कथानक का आधार ही है.
भारत की समृद्ध संस्कृति में उर्वशी की संगीत विद्या की छाप
उर्वशी की नृत्य विद्या का प्रभाव भारतीय कला और संस्कृति पर गहरा रहा है. उनकी कथाएं और नृत्य कला ने न केवल साहित्य, बल्कि शास्त्रीय नृत्य रूपों जैसे भरतनाट्यम, कथक, और ओडिसी को भी प्रेरित किया है. उर्वशी को भारतीय शास्त्रीय नृत्य की आदर्श नायिका माना जाता है. भरतनाट्यम और कथक में अप्सराओं के नृत्य को दर्शाने वाले प्रदर्शन अक्सर उर्वशी की कथाओं से प्रेरित होते हैं. नाट्यशास्त्र, जो भारतीय नृत्य और नाट्य का आधार ग्रंथ है, में अप्सराओं की नृत्य कला का उल्लेख है, और उर्वशी को इस कला की प्रतीक माना जाता है.
प्राचीन भारतीय मंदिरों और गुफाओं (जैसे अजंता-एलोरा) में अप्सराओं की मूर्तियां और चित्र उर्वशी की नृत्य मुद्राओं से प्रेरित हैं. इनमें उनकी कोमल मुद्राएं और लालित्य स्पष्ट रूप से झलकता है. मध्यकालीन चित्रकलाओं में भी उर्वशी को नृत्य करती हुई दर्शाया गया है.
तंत्र विद्या में भी है उर्वशी
अप्सरा उर्वशी सिर्फ नृत्य, संगीत या नाट्य विधा में ही शामिल नहीं है, न ही वह केवल पौराणिक कथाओं तक सीमित है, बल्कि उर्वशी तंत्र साधना में भी शामिल है. सौंदर्य, ऐश्वर्य और सुख-वैभव की प्राप्ति के लिए तंत्र में उर्वशी तंत्र साधना का जिक्र भी आता है. जिसमें कुछ तंत्र क्रियाओं के जरिए अप्सरा उर्वशी को साधने के तरीकों का वर्णन मिलता है. हालांकि इसका सही स्वरूप क्या है, इस विषय में नहीं कहा जा सकता है, न ही ऐसा दावा किया जा सकता है कि उर्वशी मंत्र को साधकर उससे इच्छापूर्ति की जा सकती है?
ऐसी है तंत्र साधना
ऐसा माना जाता है कि, उर्वशी तंत्र साधना साधक को धन, स्वास्थ्य, दीर्घकालिक यौवन, आकर्षण और कार्यों में सफलता प्रदान करती है. नकारात्मक विचार, बदले की भावना, वासना या भय मन में होने पर तंत्र साधना में सफलता नहीं मिलती, इसलिए मन, शरीर और आत्मा की शुद्धता जरूरी है. इस साधना को शुक्रवार रात से शुरू करते हैं और सफेद वस्त्र पहनकर उत्तर दिशा में बैठते हैं. महादेव की पूजा कर फूल, सुगंधित अगरबत्ती और गाय के घी के सात दीये जलाए जाते हैं और फिर गुरु से प्राप्त उर्वशी मंत्र का जाप किया जाता है. साधना के फलस्वरूप साधक को रोगों से मुक्ति, सौंदर्य, आत्मविश्वास और समाज में सम्मान मिलता है. साधना गुरु के मार्गदर्शन में, ब्रह्मचर्य और सात्विक जीवनशैली के साथ की जानी जरूरी है. इसके लिए देवी का मंत्र ‘ॐ श्री उर्वशी आगच्छागच्छ स्वाहा’ है.
कुल मिलाकर ये है कि उर्वशी सिर्फ स्वर्ग की अप्सरा नहीं है, वह सौंदर्य की देवी भी नहीं है, बल्कि वह सनातन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, कला का जीवंत उदाहरण है. ऐसे में उनका मंदिर होना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन इस मंदिर का एक्ट्रेस उर्वशी रौतेला से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है और वह उनके फैंस के लिए नहीं बनाया गया है.
