एक महिला ने अपने आँचल का किनारा फाड़कर एक आगंतुक के हाथ पर राखी बांधी।

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यह दृश्य धराली (उत्तरकाशी) की आपदा के बीच इंसानियत और पहाड़ी संस्कृति का सबसे भावुक उदाहरण बन गया। जब चारों ओर तबाही का मंजर था, घर-बार मलबे में दबे थे, लोग अपने प्रियजनों की तलाश में भटक रहे थे—उसी समय एक महिला ने अपने आँचल का किनारा फाड़कर एक आगंतुक के हाथ पर राखी बांधी।

अवतार सिंह बिष्ट ,रुद्रपुर, संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स,उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

ना थाली थी, ना रोली-चंदन, ना मिठाई—केवल कपड़े का एक टुकड़ा, लेकिन उसमें भरा था भरोसा, अपनापन और सुरक्षा का वचन। इस राखी में किसी त्योहार की औपचारिकता नहीं, बल्कि पहाड़ की उस अनकही परंपरा का अक्स था, जहाँ रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।

यह दृश्य सिर्फ राखी का नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं का प्रतीक बन गया। यह बताता है कि विपत्ति के समय पहाड़ की बेटियाँ और बहनें अपने रक्षकों को यूँ ही नहीं चुनतीं—वे उन्हें अपने दिल से भाई मानकर अपनी और पूरे गाँव की सुरक्षा की प्रार्थना सौंप देती हैं।

धराली की इस बहन ने जिस सरलता और सच्चाई से राखी बांधी, उसने करोड़ों लोगों का दिल जीत लिया। यह राखी शायद धागे की न हो, लेकिन यह अमर हो गई—मानवता, भरोसे और उत्तराखंड की जीवंत सांस्कृतिक धरोहर के रूप में।

धराली की राखी: आपदा के मलबे में उम्मीद का धागा

उत्तरकाशी के धराली गांव में जब प्रकृति ने कहर बरपाया, पहाड़ टूटकर घरों पर गिरे, जिंदगियां मलबे में दबीं और चारों ओर सन्नाटा पसरा—उस समय उम्मीद की कोई भी किरण दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी। राहत और बचाव का काम चल रहा था, लेकिन पीड़ा का पैमाना इतना गहरा था कि शब्द भी छोटे पड़ जाएं। इसी बीच एक घटना ने इस आपदा की कहानी में भावनाओं का ऐसा मोड़ जोड़ा, जिसे शायद आने वाले सालों तक लोग याद रखेंगे।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी आपदा प्रभावित क्षेत्र का निरीक्षण कर रहे थे। भीड़ में एक महिला आई—थकी हुई, आंखों में आंसू, लेकिन चेहरे पर दृढ़ संकल्प। उसने अपनी साड़ी का पल्ला फाड़ा और उसी कपड़े को राखी की तरह मुख्यमंत्री की कलाई पर बांध दिया। यह राखी सोने-चांदी की नहीं थी, इसमें न कोई रंग-बिरंगी सजावट थी और न कोई रेशमी डोरी। लेकिन इस फटे कपड़े में एक बहन का विश्वास, उम्मीद और सुरक्षा का वचन बुना हुआ था।

इस राखी में न केवल रिश्ते का पवित्र एहसास था, बल्कि यह मुख्यमंत्री को उनके कर्तव्यों का सबसे सच्चा स्मरण भी करा रही थी—कि आज वे केवल एक जनप्रतिनिधि नहीं, बल्कि धराली के हर पीड़ित के भाई, बेटे और संरक्षक हैं। महिला के इस कदम ने आपदा के अंधेरे में एक उजाला जला दिया। उसने मानो कह दिया—“भैया, हमारी रक्षा करो, हमारे गांव को फिर से बसाओ, हमें निराश मत करना।”

मुख्यमंत्री धामी का चेहरा भी इस क्षण भावनाओं से भीग गया। उन्होंने न केवल उस राखी को सम्मान से स्वीकारा, बल्कि यह भी महसूस किया कि यह एक साधारण धागा नहीं—यह जनता का भरोसा है, जिसे निभाना अब उनका सबसे बड़ा व्रत है। धराली की राखी ने शासन और जनता के बीच दूरी पाट दी; यह एक संवेदनशील नेतृत्व की परीक्षा का क्षण था।

आज जब राजनीति अक्सर ठंडे शब्दों और कठोर चेहरों में बदल गई है, यह घटना याद दिलाती है कि असली नेतृत्व जनता की भावनाओं से जुड़ने में है। राखी बांधने वाली बहन ने कोई ज्ञापन नहीं सौंपा, कोई भाषण नहीं दिया—बस अपने दिल का संदेश एक फटे कपड़े में बांध दिया। यह कपड़ा किसी सरकारी फाइल से ज्यादा ताकतवर था, क्योंकि इसमें संवेदना, विश्वास और उम्मीद का संगम था।

धराली की राखी हमें यह भी सिखाती है कि आपदाओं के बीच इंसानियत का रिश्ता सबसे बड़ा सहारा होता है। मलबा हट जाएगा, घर फिर बनेंगे, लेकिन यह क्षण हमेशा जीवित रहेगा—जब एक बहन ने अपने मुख्यमंत्री को भाई मानकर उनके हाथ में उम्मीद का धागा बांधा और मुख्यमंत्री ने उसे पूरे दिल से अपनाया।

शायद यही धागा अब इतना मजबूत बने कि वह न सिर्फ धराली, बल्कि पूरे उत्तराखंड की पीड़ाओं को बांधकर उन्हें दूर करने का संकल्प जगाए। यह राखी अब सिर्फ एक महिला और मुख्यमंत्री के बीच का रिश्ता नहीं—यह राज्य की हर उस उम्मीद का प्रतीक है, जो आपदा के बीच भी हार मानने को तैयार नहीं।


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