
प्रस्तावना: रिश्तों की बदलती परिभाषा और समाज की चिंताएं
उत्तराखंड, जिसे देवभूमि कहा जाता है, वहां अब रिश्तों की परिभाषा बदल रही है। पारंपरिक विवाह संस्था के स्थान पर अब बिना विवाह साथ रहने यानी ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ का चलन बढ़ रहा है। उत्तराखंड राज्य महिला आयोग के पास पहले जहां महीने में एक-दो ऐसे मामले आते थे, अब उनकी संख्या सात से दस तक पहुंच गई है। यह न केवल समाज की चिंता का विषय है, बल्कि यह उस मूल सांस्कृतिक ढांचे को भी चुनौती देता है जिस पर उत्तराखंड की पहचान टिकी है।


राज्य सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता (UCC) के अंतर्गत लिव-इन रिलेशन को कानूनी मान्यता देने का प्रयास, एक तरफ पारदर्शिता की बात करता है, लेकिन दूसरी ओर समाज की नींव को हिलाने का जोखिम भी उठाता है। इस लेख में हम इन रिश्तों के कानूनी, सामाजिक और भावनात्मक दुष्परिणामों की पड़ताल करेंगे, और उत्तराखंड सरकार की भूमिका पर कठोर सवाल उठाएंगे।
आंकड़े जो चीख-चीख कर कह रहे हैं – ‘ये प्रेम नहीं, छल है’
राज्य महिला आयोग की रिपोर्टों के अनुसार, लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। इनमें से अधिकांश मामलों में महिलाओं ने धोखा खाने, शादी का झांसा देकर शारीरिक संबंध बनाए जाने और फिर छोड़े जाने की शिकायतें दर्ज कराई हैं।
पौड़ी निवासी युवती ने बताया कि वह सेलाकुई क्षेत्र की एक फैक्ट्री में काम करती है। वर्ष 2021 में एक युवक से मुलाकात हुई और दोनों लिव-इन में रहने लगे। जब विवाह की बात आई तो युवक ने दूसरी जगह सगाई कर ली थी और साथ रहने से इंकार कर दिया।
हरिद्वार निवासी महिला का अपने पति से तलाक हो चुका था। वह एक कंपनी में काम करने लगी और एक युवक से उसका परिचय हुआ। दोनों एक साल तक साथ रहे। जब विवाह की बात उठी, तो पता चला कि युवक पहले से शादीशुदा है।
हल्द्वानी निवासी युवती एक कॉलेज से कोर्स कर रही थी। वह एक युवक के साथ रहने लगी, जिसने विवाह का वादा किया। लेकिन कुछ समय बाद युवक विवाह से मुकर गया। युवती ने कहा, “जिस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया, उसी ने भविष्य बर्बाद कर दिया।”
संस्कार बनाम समान नागरिक संहिता – टकराव का समय
उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता के अंतर्गत लिव-इन रिलेशन का पंजीकरण अनिवार्य करने का प्रस्ताव रखा है। सरकार का दावा है कि इससे महिलाओं की सुरक्षा बढ़ेगी और पारदर्शिता आएगी। लेकिन यह निर्णय उत्तराखंड की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के खिलाफ जाता प्रतीत होता है।
जहां एक ओर युवा पीढ़ी ‘आधुनिकता’ की ओर बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर यह बदलाव समाज की नैतिकता, संस्कृति और पारिवारिक ढांचे को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। यह कदम उस परंपरा और संस्कृति पर सीधा प्रहार है, जो उत्तराखंड को बाकी राज्यों से अलग करती है।
लिव-इन के दुष्परिणाम – कानून से ज़्यादा भावनाओं की लड़ाई
लिव-इन रिलेशनशिप के पीछे का भावनात्मक समीकरण कहीं अधिक जटिल है। शादी का वादा कर लिव-इन में रहने वाले पुरुष अक्सर भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक शोषण के दोषी पाए जाते हैं।
- मानसिक आघात: युवा लड़कियां खुद को ठगा हुआ महसूस करती हैं। उनका आत्मविश्वास टूट जाता है और वे अवसाद का शिकार होती हैं।
- कानूनी जटिलताएं: चूंकि ये संबंध विवाह नहीं माने जाते, इसलिए महिलाओं के पास तलाक, भरण-पोषण या संपत्ति के कानूनी अधिकार नहीं होते।
- संतान का भविष्य: अगर ऐसे संबंधों में संतान होती है तो उसकी वैधता, पालन-पोषण और कानूनी पहचान को लेकर समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।
सरकार से सवाल – यह ‘सुधार’ या सामाजिक अवनति?
उत्तराखंड सरकार का यह निर्णय भले ही शहरी युवा वर्ग को आकर्षित कर रहा हो, लेकिन यह गांव-गांव में जाकर समाज की नींव को खोखला कर रहा है। प्रश्न उठता है कि क्या सरकार ने इस नीति को लागू करने से पहले जनता से संवाद किया? क्या संस्कृति विशेषज्ञों, समाजशास्त्रियों और ग्रामीण जनता की राय ली गई?
यह निर्णय एकतरफा लगता है। इससे न केवल समाज में अस्थिरता आएगी बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी रिश्तों की वास्तविकता से दूर कर देगा। यह ‘रजिस्ट्रेशन’ का प्रयोग एक प्रयोगशाला में किया गया सामाजिक प्रयोग जैसा लगता है जिसका परिणाम अनिश्चित है।
युवाओं के नाम – प्रेम में विवेक रखें, भावनाओं में नहीं बहें
युवाओं को यह समझना होगा कि जीवन में स्थायित्व और सफलता केवल करियर से नहीं, बल्कि सही निर्णयों से आता है। प्रेम की आड़ में भावनात्मक बहाव में बह जाना केवल दुःख और पछतावे की ओर ले जाता है।
- लक्ष्य पर फोकस: जीवन के उद्देश्य को प्राथमिकता दें।
- संवेदनशील निर्णय: किसी भी रिश्ते में जाने से पहले विचार करें, समझदारी से कदम बढ़ाएं।
- माता-पिता से संवाद: घरवालों से जुड़े रहें। अपने मन की बात साझा करें, मार्गदर्शन लें।
आयोग की भूमिका – काउंसलिंग से समाधान, लेकिन ज़िम्मेदारी पूरे समाज की
राज्य महिला आयोग ऐसे मामलों में तीन चरणों की काउंसलिंग करता है—पहले पुरुष और महिला से अलग-अलग, फिर संयुक्त रूप से। कई बार समझाइश से समाधान निकल आता है, लेकिन जब मामला गंभीर होता है तो पुलिस को निर्देश दिए जाते हैं।
आयोग की अध्यक्ष कुसुम कंडवाल का कहना है कि रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होने से मामलों में कमी आएगी। लेकिन उनका यह भी मानना है कि अभिभावकों की जिम्मेदारी भी बहुत बड़ी है। जो युवा पढ़ाई या नौकरी के लिए बाहर रहते हैं, उनके साथ संवाद बनाए रखना जरूरी है।
उत्तराखंड के लिए यह चेतावनी है, सुधार नहीं
लिव-इन रिलेशनशिप का कानूनीकरण उत्तराखंड के लिए एक सांस्कृतिक संकट की शुरुआत हो सकता है। सरकार को चाहिए कि इस विषय पर व्यापक जनमत संग्रह कराए, समाज के विभिन्न वर्गों से राय ले और फिर निर्णय ले।
यह रिपोर्ट न केवल सरकार के लिए आईना है, बल्कि उन युवाओं के लिए भी चेतावनी है जो बिना समझे-बूझे भावनात्मक फैसले ले रहे हैं। प्रेम जरूरी है, लेकिन विवेक उससे कहीं अधिक।
उत्तराखंड को अपनी सांस्कृतिक विरासत बचाने के लिए सतर्क होना होगा—वरना रिश्तों की यह आधुनिकता, भविष्य को अंधकार में धकेल देगी।
