चारधाम यात्रा या मौत की ओर यात्रा? उत्तराखंड की जर्जर बसें और जिम्मेदारियों से भागती सरकार,जिस बस को होना था कबाड़ में, वो निकली है भगवान के द्वार में। न ड्राइवर को भरोसा है बस पर, न यात्री को सरकार पर। फिर भी यात्रा जारी है… क्योंकि भरोसा तो भगवान पर है — सरकार पर नहीं।”

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उत्तराखंड, देवभूमि — जहां हर साल लाखों श्रद्धालु चारधाम यात्रा पर आते हैं, जहां पर्यटन को ‘आर्थिक रीढ़’ बताया जाता है, वहां परिवहन निगम के पास श्रद्धालुओं को सुरक्षित पहुंचाने के लिए बसें नहीं, बल्कि कबाड़ घरों से निकली धड़कती-खड़खड़ाती लोहा मशीनें हैं। जब यही जर्जर बसें तीर्थयात्रियों को लेकर गहरी घाटियों की ओर निकलती हैं तो सवाल उठता है — अगर हादसा हुआ, तो जिम्मेदार कौन?

शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता

चारधाम यात्रा और ‘ग्रीन कार्ड’ की सच्चाई
हर साल की तरह इस साल भी परिवहन विभाग ने दावा किया है कि “फिट” बसों को ही चारधाम यात्रा में लगाया जाएगा। ‘ग्रीन कार्ड’ जारी होगा। लेकिन यह ‘ग्रीन कार्ड’ कहीं ‘ग्रीन सिग्नल टू डेथ’ तो नहीं बन रहा? जिन बसों की हालत इतनी दयनीय है कि उन्हें नीलाम किया जाना चाहिए था, वे अब चारधाम यात्रा में लगेंगी, वो भी पहाड़ी सड़कों पर, खतरनाक मोड़ों पर और जानलेवा ढलानों पर।

40 से ज्यादा बसें ऐसी हैं जो 8 लाख किमी से अधिक चल चुकी हैं। बॉडी जर्जर, ब्रेक असुरक्षित और सीटें गंदगी से सनी हुईं। क्या यही है हमारी ‘तीर्थ यात्रा की सेवा’?

उत्तराखंड की बसें = दुर्घटनाओं का पर्यायवाची?
उत्तराखंड में जिस तरह से बस दुर्घटनाएं आम हो चुकी हैं, उससे अब “बस यात्रा” नहीं, बल्कि “भाग्य आज़माओ” जैसा अहसास होता है। आए दिन अखबारों की सुर्खियों में किसी खाई में गिरी बस की तस्वीर होती है, उस पर फूल चढ़ते हैं, श्रद्धांजलि दी जाती है, फिर सब भूल जाते हैं। और सरकार? वह आंकड़ों और फाइलों की ओट में छिप जाती है।

जब तक कोई बड़ा हादसा न हो, तब तक उत्तराखंड की सरकार और परिवहन निगम दोनों ‘नींद’ में रहते हैं। क्या यही है 25 सालों में हासिल विकास?

पर्वतीय क्षेत्रों के लिए ‘कब्रगाड़ियों’ की तैनाती
यह किसी ब्लैक कॉमेडी से कम नहीं कि जिन बसों को नीलाम होना चाहिए था, उन्हें अब दुर्गम पर्वतीय मार्गों पर उतारा जा रहा है। जबकि नियम कहता है कि जो बसें 6 लाख किमी से अधिक चल चुकी हों, उन्हें पर्वतीय मार्गों पर चलाना प्रतिबंधित है।

तो क्या अब नियमों को ताक पर रखकर सिर्फ आंकड़े पूरे करने के लिए यात्रियों की जान से खिलवाड़ किया जाएगा?

कुुमाऊं बनाम गढ़वाल: बसों में भी भेदभाव?
रोडवेज की 130 नई बसों में से 100 बसें कुमाऊं को और मात्र 30 बसें गढ़वाल मंडल को दी गईं। सवाल यह उठता है कि क्या गढ़वाल क्षेत्र के तीर्थ स्थल और तीर्थ यात्री दोयम दर्जे के हैं? क्या सरकार गढ़वाल को केवल ‘धार्मिक राजस्व’ का स्रोत मानती है लेकिन सुविधा देने में पीछे हटती है?

गढ़वाल की बसें हैं तो 2016 या 2019 की, लेकिन हालत ऐसी कि कब सड़क पर दम तोड़ दें, कोई भरोसा नहीं।

जवाबदेही का सवाल: दुर्घटना हुई तो कौन जिम्मेदार?
हर बार हादसे के बाद एक ‘नियमित बयान’ आता है — “जांच के आदेश दिए गए हैं।” और फिर कुछ नहीं होता। न कोई अधिकारी सस्पेंड होता है, न कोई मंत्री इस्तीफा देता है। क्यों?

क्या उत्तराखंड सरकार ने मान लिया है कि चारधाम यात्रा ‘जोखिम उठाओ और भरोसा करो भगवान पर’ योजना है?

अगर यात्रा में एक भी जान जाती है तो जिम्मेदार कौन होगा? वो अफसर जिसने फिटनेस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर किए? वो मंत्री जिसने टेंडर पास किए? या वो सीएम जिसने इन सब पर चुप्पी साधी?

बसें नहीं, मौत की मशीनें
उत्तराखंड परिवहन निगम की हालत किसी पोस्टमार्टम हॉल जैसी हो गई है। कोई बस ना समय से चलती है, ना सही दिशा में जाती है। और जो चलती भी है, वह भी ‘जैसे-तैसे’।

अगर किसी यात्री ने बस की खिड़की से झांका तो या तो जंग लगे फ्रेम से हाथ कटेगा या टूटे शीशे से। बसों में सीट बेल्ट तो दूर, सीटें ही स्थिर नहीं होतीं। यह कैसा ‘सिस्टम’ है जो यात्रियों को “सेवा” नहीं, “संघर्ष” दे रहा है?

पर्यटन प्रदेश या मौत का गलियारा?
उत्तराखंड सरकार हर साल पर्यटन को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करती है। प्रचार में करोड़ों खर्च होते हैं, लेकिन जब तीर्थयात्रियों की सुविधा और सुरक्षा की बात आती है तो खजाना सूख जाता है।

टूरिज्म टैग, चारधाम विकास प्राधिकरण, ई-रिकॉर्डिंग, हेलीकॉप्टर सेवा – सब दिखावे के लिए। लेकिन एक भरोसेमंद बस सेवा नहीं दे सकते? तो क्या हम सच में पर्यटन प्रदेश हैं या सिर्फ टैगलाइन के गुलाम?

सरकार और निगम: कागजों में फिट, असलियत में फेल
प्रशासनिक अधिकारियों की जिम्मेदारी होती है कि नियमों का पालन कर बसों की जांच करें। लेकिन यहां नियमों से ज्यादा ‘ऊपरी दबाव’ और ‘घोषणाएं’ काम करती हैं।

गैर-फिट बसों को फिट बताना सिर्फ बेईमानी नहीं, हत्या की साजिश है। क्योंकि इन बसों में जब हादसा होगा, तब केवल लोहे की छड़ें नहीं टूटेंगी, किसी घर का चिराग बुझेगा।

मीडिया और जनता की भूमिका: कब जागेगा जनदबाव?
इस मुद्दे पर मीडिया की चुप्पी भी सवालों के घेरे में है। सरकारी विज्ञापन की चाशनी में डूबी खबरों के बीच यह मुद्दा कहीं खो जाता है। जनता भी अब हादसों को नियति मानने लगी है।

जब तक सड़क पर उतरकर यह सवाल नहीं पूछा जाएगा कि “हादसा हुआ तो जिम्मेदार कौन?”, तब तक कोई जवाब नहीं मिलेगा।

श्रद्धालुओं की जान की कीमत कब समझेगी सरकार?
चारधाम यात्रा केवल धार्मिक यात्रा नहीं, यह राज्य की नब्ज़ है। अगर इस यात्रा को सुरक्षित नहीं बनाया गया तो यह उत्तराखंड की असफलता का सबसे बड़ा प्रमाण बन जाएगा।

सरकार और परिवहन निगम को यह समझना होगा कि हर बस में बैठा यात्री केवल संख्या नहीं, एक जीवन है — जिसकी सुरक्षा सरकार की पहली जिम्मेदारी है।

जिस बस को होना था कबाड़ में, वो निकली है भगवान के द्वार में। न ड्राइवर को भरोसा है बस पर, न यात्री को सरकार पर। फिर भी यात्रा जारी है… क्योंकि भरोसा तो भगवान पर है — सरकार पर नहीं।”



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