
जब से सर्वोच्च न्यायालय ने आवारा कुत्तों पर निर्णय दिया है, उससे अधिक चर्चा कुत्ता प्रेमियों की सक्रियता पर हो रही है। गली-गली से लोग यह कहते दिखाई दे रहे हैं कि यह “मानवता” और “पशु प्रेम” का मामला है। परंतु असली प्रश्न यह है कि क्या यह वास्तव में पशु प्रेम है या इसके पीछे कोई और छिपा हुआ खेल है?


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)
कुत्ता प्रेम में गाय, बकरी, मुर्गा और मछली क्यों गायब?
यदि यह सचमुच पशु प्रेम होता, तो केवल कुत्ते ही नहीं, बल्कि गाय, बकरी, मुर्गा और मछली जैसे तमाम बेज़ुबान जीव भी इनकी संवेदनाओं का हिस्सा होते। लेकिन ऐसा नहीं है। इस “कुत्ता प्रेम” का दायरा केवल और केवल सड़क के कुत्तों तक सीमित क्यों है? इसका उत्तर हमें अंतरराष्ट्रीय फंडिंग और विदेशी एजेंडे में तलाशना होगा।
विदेशी फंडिंग और महंगे वकील
सच्चाई यह है कि पेटा इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं को भारत में आवारा कुत्तों की समस्या बढ़ाने में गहरी रुचि है। यह वही संगठन है जिसने सर्वोच्च न्यायालय में कुत्तों के लिए केस लड़ने के लिए देश के सबसे महंगे वकीलों—कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी—को खड़ा किया। इनकी फीस मिलाकर 7 करोड़ रुपये तक पहुंच जाती है। प्रश्न उठता है—कुत्तों के लिए इतनी महंगी लड़ाई कौन और क्यों लड़वा रहा है?
यूरोप और अमेरिका, जहां पेटा के मुख्यालय हैं, वहां सड़कों पर एक भी स्ट्रीट डॉग नहीं मिलेगा। न वहां कोई आंदोलन होता है, न वहां इन पर करोड़ों खर्च किए जाते हैं। फिर क्यों भारत में ही इनकी संख्या बनाए रखने के लिए इतनी कवायद? इसका सीधा उत्तर है—भारत को एक बड़े बाजार के रूप में जिंदा रखना।
वैक्सीन माफिया का गुप्त खेल
यहां पर तस्वीर और साफ होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने रेबीज़ वैक्सीन उत्पादन के लिए केवल 18 कंपनियों को अधिकृत किया है, जिनमें से भारत की केवल एक कंपनी—भारत बायोटेक—को हाल ही में मान्यता मिली है। जबकि सबसे बड़ा ग्राहक भारत ही है, जहां आवारा कुत्तों के कारण रेबीज़ के मामले दुनिया में सबसे ज्यादा हैं।
स्पष्ट है कि विदेशी कंपनियां चाहती हैं कि भारत में स्ट्रीट डॉग्स की समस्या बनी रहे ताकि अरबों डॉलर की वैक्सीन इंडस्ट्री जीवित रहे। यदि भारत में कुत्तों की संख्या कम हो गई, तो यह उद्योग पानी में डूब जाएगा। यही कारण है कि विदेशी एजेंट करोड़ों रुपये खर्च कर यह सुनिश्चित करते हैं कि भारत इस समस्या से मुक्त न हो।
पर्यटन और भारत की छवि पर वार
एक और बड़ा पहलू है भारत का पर्यटन उद्योग। सड़क पर घूमते कुत्तों और उनसे जुड़ी घटनाओं ने हमेशा से भारत की छवि को नुकसान पहुंचाया है। विदेशी सैलानी असुरक्षित महसूस करते हैं। क्या यह संयोग है कि भारत की छवि खराब करने के लिए वही देश और संगठन सक्रिय हैं, जो खुद अपने यहां स्ट्रीट डॉग्स का नामोनिशान नहीं रहने देते?
यह केवल पशु प्रेम नहीं, एजेंडा है
आवारा कुत्तों की समस्या केवल सामाजिक या प्रशासनिक नहीं है, यह एक वैश्विक व्यापार और राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा है। महंगे वकीलों के पीछे विदेशी फंडिंग, वैक्सीन कंपनियों के अरबों डॉलर का निवेश, और भारत की पर्यटन छवि को धूमिल करने की कोशिश—सब इस ओर संकेत करते हैं कि यह खेल भारत को कमजोर करने और इसे अपने बाजार में बांधकर रखने का है।
भारत को यह समझना होगा कि कुत्ता प्रेमियों के इस दिखावटी आंदोलन का अंततः लाभ किसे मिल रहा है—कुत्तों को, जनता को या उन विदेशी कंपनियों को जो हर साल अरबों कमा रही हैं?
👉 यह लेख एक गहन बहस की दिशा में पहला कदम है। अब समय है कि हम इस “कुत्ता प्रेम” के पीछे छिपे विदेशी एजेंडे को बेनकाब करें और सच्चाई सामने लाएं।

