संपादकीय लेख गैरसैंण में मानसून सत्र: क्या राज्य आंदोलनकारियों की परिकल्पना को मिलेगी मंज़िल?

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उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण के भराड़ीसैंण विधानसभा भवन में आगामी 19 अगस्त से 22 अगस्त तक मानसून सत्र आयोजित होने जा रहा है। सरकार इसे एक ऐतिहासिक निर्णय और जनभावनाओं का सम्मान बता रही है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और भाजपा नेतृत्व इसे पहाड़ में विकास की नयी इबारत मान रहे हैं। पर सवाल यह है कि क्या केवल सत्र कराना ही राज्य आंदोलनकारियों के उस स्वप्न को साकार करता है, जिसके लिए उन्होंने अपने खून-पसीने और कई बार अपनी जान तक की आहुति दी थी?

जब उत्तराखंड राज्य का आंदोलन अपने चरम पर था, तब गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का विचार महज़ भौगोलिक संतुलन नहीं था। यह उस सोच का प्रतीक था कि पर्वतीय जनता का शासन पर्वतों में ही बैठेगा, उनकी समस्याओं और आशाओं को वहीं से सुना और समझा जाएगा। आंदोलनकारियों के लिए गैरसैंण सिर्फ एक जगह नहीं थी, बल्कि वह प्रतीक थी सत्ता के विकेन्द्रीकरण और जनसरोकारों की नजदीकी का।

संवाददाता,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट/उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी!

आज गैरसैंण में विधानसभा का सत्र भले हो रहा हो, पर प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में सत्ता का केंद्र पर्वतों में आया है? क्या सरकारी महकमे, सचिवालय, अफसरशाही का बड़ा हिस्सा वहीं कार्यरत है? क्या विकास की नीतियाँ वहीं बैठकर गढ़ी जा रही हैं, या देहरादून ही अभी भी निर्णयों का असली केन्द्र बना हुआ है?

भाजपा नेतृत्व का यह कहना सही है कि गैरसैंण में सत्र कराना जनभावनाओं का सम्मान है। परंतु यह सम्मान तब अधूरा रह जाता है जब गैरसैंण की फाइलें फिर देहरादून लौट जाती हैं। राज्य आंदोलनकारी पूछ रहे हैं – क्या गैरसैंण महज ‘सत्र स्थल’ बनकर ही रह जाएगी? या वास्तव में वहाँ से राज्य संचालन का सपना साकार होगा?

राज्य गठन के 24 वर्ष बाद भी गैरसैंण के सवाल पर राजनीतिक दलों की दोमुंही नीति साफ दिखाई देती है। विपक्ष सत्ता में रहते हुए अक्सर गैरसैंण के प्रति ठंडा रुख दिखाता है और विपक्ष में रहते हुए इसे मुद्दा बनाता है। सत्ता पक्ष इसे सत्र कराकर अपनी उपलब्धि गिनवाता है, पर गैरसैंण को पूरी तरह राजधानी बनाने की स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं रखता।

इस बीच पहाड़ों की जनता, जो अब भी मूलभूत सुविधाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा, पलायन, और रोजगार जैसे सवालों से जूझ रही है, उनके लिए गैरसैंण पर हो रही राजनीति एक छलावा प्रतीत होती है। आंदोलनकारियों ने जिस ‘जनकेंद्रित शासन व्यवस्था’ की कल्पना की थी, वह गैरसैंण के स्थायी और पूर्ण विकास में ही साकार हो सकती है।

सरकार ने भराड़ीसैंण में ई-नेवा डिजिटाइजेशन जैसे कार्य किए हैं, यह स्वागत योग्य है। पर ये सुविधाएँ तभी सार्थक होंगी, जब वे पर्वतीय जनता की रोजमर्रा की समस्याओं का हल निकालने में सक्षम हों। विधानमंडल सत्र में उठने वाले 450 सवाल तभी मायने रखेंगे, अगर उनके जवाब पहाड़ के गाँवों तक पहुँचें।

आज राज्य आंदोलनकारियों की आत्मा यह सवाल कर रही है कि क्या गैरसैंण का नाम भर लेने से राज्य निर्माण का सपना पूरा हुआ? जवाब है – नहीं। जब तक वहाँ स्थायी राजधानी के स्वरूप में सभी विभाग, सचिवालय, उच्च प्रशासनिक व्यवस्था स्थानांतरित नहीं होती, तब तक यह सपना अधूरा ही रहेगा।

इसलिए यह समय सरकार और विपक्ष दोनों के लिए आत्मचिंतन का है। गैरसैंण को एक सत्र-स्थल नहीं, बल्कि उत्तराखंड के वास्तविक सत्ता केन्द्र में बदलना होगा। यही उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों के बलिदान का सच्चा सम्मान होगा।

विधानसभा का यह मानसून सत्र अगर इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाता है, तो यह न केवल एक राजनीतिक घटना होगी, बल्कि यह राज्य निर्माण के संघर्ष को एक नई मंज़िल की ओर ले जाएगा। अन्यथा, गैरसैंण फिर एक राजनीतिक तमाशा बनकर रह जाएगा — जैसे पिछले दो दशक से होता आया है।

– संपादकीय विभागसंवाददाता,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट/उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी!


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