
उत्तराखंड की राजनीति एक बार फिर इतिहास से प्रेरित फैसलों के बीच असंतुलन का शिकार हो रही है। राज्य के गृह विभाग द्वारा तैयार किया जा रहा प्रस्तावित विधेयक, जिसमें आपातकाल (1975–1977) के दौरान जेल में रहे लोकतंत्र सेनानियों को कानूनी पेंशन और सुविधाएं देने की बात है, निःसंदेह लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान का प्रतीक है। लेकिन यही सरकार जब उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारियों की दशकों पुरानी उपेक्षा पर चुप्पी साध ले, तो यह सवाल खड़ा होता है — क्या धामी सरकार का यह कदम इतिहास से न्याय है या वर्तमान से अन्याय?
लोकतंत्र सेनानियों को विधेयक का कवच: स्वागतयोग्य लेकिन अधूरा कदम?25 जून 1975 को लगे आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है। इस दौरान संविधान को निलंबित कर लाखों नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचला गया। उस समय जो लोग इस तानाशाही के खिलाफ उठ खड़े हुए और जेल गए, उन्हें आज भी लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में देखा जाता है।
त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार द्वारा शुरू की गई लोकतंत्र सेनानी पेंशन योजना को अब पुष्कर सिंह धामी सरकार कानूनी स्वरूप देने जा रही है। विधेयक के ड्राफ्ट की पुष्टि स्वयं सचिव गृह शैलेश बगोली द्वारा की गई है, और संभव है कि मानसून सत्र में यह विधेयक गैरसैंण में प्रस्तुत हो।
इस विधेयक के तहत:?लगभग 80 लोकतंत्र सेनानियों को ₹20,000 मासिक पेंशन मिलती रहेगी।
- भविष्य की किसी भी सरकार द्वारा इस अधिकार को छीना न जा सके, इसलिए इसे विधायी संरक्षण मिलेगा।
- संभावित रूप से, परिवहन और स्वास्थ्य सुविधाएं भी जोड़ी जा सकती हैं।
यह पहल, बेशक, एक ऐतिहासिक न्याय के तौर पर सराहनीय है — लेकिन यह वहीं तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।


उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी: जिनका संघर्ष आज भी अधूरा है?सवाल यह है कि जब 1975-77 की अवधि में भारत की लोकतंत्र रक्षा के लिए जेल गए नागरिकों को इतना सम्मान दिया जा रहा है, तो उन हजारों उत्तराखंडी नागरिकों का क्या, जिन्होंने 1994 के राज्य आंदोलन में अपनी जान गंवाई, लाठियां खाईं, बलात्कार की पीड़ा झेली, और वर्षों सड़कों पर उतरकर एक अलग राज्य की मांग की?
उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए संघर्ष करने वाले आंदोलनकारी:?किसी राजनीतिक विचारधारा के नहीं, बल्कि आंचलिक अस्मिता के लिए लड़े।
- नारे नहीं, बलिदान दिए — रामपुर तिराहा कांड जैसे जघन्य दमन के शिकार हुए।
- लेकिन आज उनकी पहचान तक आधिकारिक रूप से सुनिश्चित नहीं की गई है।
यह अत्यंत विडंबना की बात है कि उत्तराखंड राज्य में राज्य आंदोलनकारी की मान्यता, पेंशन और अन्य सुविधाएं या तो प्रतीकात्मक हैं, या चुनावी घोषणापत्रों तक सीमित रहती हैं। आज भी अधिकांश आंदोलनकारी वृद्धावस्था पेंशन के बराबर नाथपंथ की भांति मानदेय पा रहे हैं — जो ना तो उनके संघर्ष के अनुकूल है, और ना ही उस राज्य के लिए सम्मानजनक, जिसकी नींव उन्होंने अपने खून से सींची।
राज्य सरकार की दोहरी नीति: सम्मान बनाम सौदा?2017 के विधानसभा चुनावों में राज्य आंदोलनकारी बड़ी संख्या में भाजपा के साथ खड़े हुए थे। उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा, जो अक्सर राष्ट्रवाद और बलिदान की राजनीति करती है, उनके साथ न्याय करेगी। लेकिन सत्तारूढ़ होने के बाद उनके मुद्दे ठंडे बस्ते में चले गए।
अब जब धामी सरकार लोकतंत्र सेनानियों के लिए विधेयक ला रही है, तो सवाल लाज़मी है:?क्या राज्य आंदोलनकारी के लिए ऐसा कोई विधेयक कभी लाया जाएगा?
-
क्या सरकार यह तय करेगी कि एक वर्ग को ₹20,000 मासिक पेंशन मिले और दूसरे को केवल वृद्धावस्था सहायता?
- क्या यह न्याय का विरोधाभास नहीं?
धामी सरकार अगर लोकतंत्र सेनानियों की सुविधाएं बढ़ा रही है, तो उसे समानांतर रूप से राज्य निर्माण आंदोलनकारियों के लिए भी ठोस नीति लानी चाहिए — जो उन्हें न केवल पेंशन, बल्कि मान-सम्मान, चिकित्सा, परिवहन, और राजकीय पहचान भी प्रदान करे।
मूल्यांकन का नया मापदंड बनाना होगा?आपातकाल सेनानियों और राज्य आंदोलनकारियों के योगदान की तुलना करना उचित नहीं है, क्योंकि दोनों ही संघर्ष अलग-अलग संदर्भों में लड़े गए। लेकिन राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह अपने अस्तित्व के लिए लड़े आंदोलनकारियों को प्राथमिकता दे। यह एक संवैधानिक कर्तव्य तो नहीं, लेकिन नैतिक न्याय का आधार जरूर है।
राज्य आंदोलनकारियों के लिए सुझाव:?आधिकारिक रजिस्टर: राज्य आंदोलनकारियों की पात्रता तय करने के लिए एक पारदर्शी और पुनरीक्षित रजिस्टर बनाया जाए।
- कानूनी पेंशन अधिनियम: जैसा लोकतंत्र सेनानियों के लिए विधेयक आ रहा है, वैसा ही राज्य आंदोलनकारियों के लिए भी लाया जाए।
- शहीद परिवारों के लिए विशेष पैकेज: रामपुर तिराहा और अन्य घटनाओं में मारे गए आंदोलनकारियों के परिवारों को केंद्रीय बलों की शहादत की तरह लाभ मिले।
- आरक्षण और नौकरी में प्राथमिकता: आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को शिक्षा और सरकारी सेवाओं में विशेष अवसर मिलें।
धामी सरकार को आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता?मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को याद रखना चाहिए कि उत्तराखंड की आत्मा सिर्फ पर्यटन, तीर्थाटन और विकास योजनाओं में नहीं बसती — बल्कि उस जन चेतना में है, जिसने राज्य की मांग के लिए सबकुछ न्योछावर किया। सरकार जब एक ओर लोकतंत्र सेनानियों को विधायी सुरक्षा देती है, वहीं उसे अपने राज्य निर्माण आंदोलन के स्थानीय नायकों को भुला देना नैतिक रूप से उचित नहीं।
निष्कर्ष: लोकतंत्र तब ही संपूर्ण है, जब सबको न्याय मिले?आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष करने वाले सेनानी भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का अहम हिस्सा हैं, लेकिन उत्तराखंड के आंदोलनकारी इस राज्य की आत्मा हैं। यदि कोई सरकार लोकतंत्र के नाम पर न्याय करने का दावा करती है, तो उसे अपने स्थानीय नायकों के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए।
अतः धामी सरकार को चाहिए कि वह लोकतंत्र सेनानियों के समान ही राज्य आंदोलनकारियों को भी विधायी संरक्षण दे। अगर यह सरकार ऐसा करने में विफल रही, तो आने वाले चुनावों में वह उसी जनसमूह की नाराजगी का शिकार हो सकती है, जिसने कभी उसे सत्ता की ऊंचाइयों तक पहुंचाया था।
[लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, वरिष्ठ पत्रकार, राज्य आंदोलनकारी मामलों के संपादकीय विश्लेषक | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स]

