संपादकीय:रुद्रपुर–किच्छा की सियासत में नए समीकरण: ठुकराल बने ‘राजनीतिक प्रयोगशाला’ का ताज़ा नमूना? तिलक राज बेहड़ की रणनीति – ‘शतरंज का नया मोहरा? 2027: ठुकराल बनेंगे ‘राजनीतिक बली का बकरा

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✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

रुद्रपुर किच्छा राजनीति की अपनी एक अजीब फितरत होती है — यहाँ दोस्ती स्थायी नहीं, दुश्मनी भी नहीं। उत्तराखंड की तराई में रुद्रपुर और किच्छा की ज़मीन पर आजकल वही पुरानी कहावत फिर से चरितार्थ होती दिख रही है — “राजनीति में कोई शत्रु स्थायी नहीं, केवल स्वार्थ स्थायी होता है।”
2027 के विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट ने दोनों इलाकों की राजनीति में एक नया हलचल पैदा कर दिया है। खासकर दो नामों ने — तिलक राज बेहड़ और राजकुमार ठुकराल — इन दिनों सियासी हवाओं में गूंज बढ़ा दी है।

जो दो दशक पहले एक-दूसरे के खिलाफ़ मंच से बाण चला रहे थे, आज वे एक ही मंच पर दिखाई दे रहे हैं। कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में तिलक राज बेहड़ (किच्छा विधायक) और पूर्व विधायक राजकुमार ठुकराल एक साथ देखे गए। बस यहीं से शुरू हुआ सियासी अटकलों का सिलसिला — क्या ठुकराल कांग्रेस में आने वाले हैं? क्या यह बेहड़ की अगुवाई में नई सियासी जुगलबंदी की तैयारी है?


भूचाल से पहले की सियासी खामोशी

रुद्रपुर और किच्छा — दोनो विधानसभा क्षेत्र तराई की राजनीति के हृदय हैं। यहाँ की जातीय और सामाजिक बनावट ही चुनाव की दशा और दिशा तय करती है।
जहाँ किच्छा अपेक्षाकृत ग्रामीण चरित्र का इलाका है, वहीं रुद्रपुर शहर में उद्योगपति, व्यापारी और प्रवासी समुदायों का वर्चस्व है।

किच्छा में तिलक राज बेहड़ का दबदबा निर्विवाद है — कांग्रेस के पुराने, जमीनी और अनुभवी नेता के रूप में वे आज भी पार्टी के स्तंभ माने जाते हैं। वहीं रुद्रपुर में राजकुमार ठुकराल ने कभी भाजपा के उग्र हिंदुत्व के चेहरे के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई थी।

लेकिन समय के साथ ठुकराल का राजनीतिक ग्राफ गिरता गया। नगर निगम चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिला, फिर उन्होंने कांग्रेस से टिकट की इच्छा जताई — और यहीं उनकी “राजनीतिक भ्रम यात्रा” की शुरुआत हुई।


“भाजपा मेरी माँ है” से “कांग्रेस मेरी मंज़िल है” तक की यात्रा

राजकुमार ठुकराल ने सार्वजनिक रूप से कहा था — “भारतीय जनता पार्टी मेरी माँ है, मैं मोदी जी का भक्त हूँ।”
लेकिन इसी दौरान वे कांग्रेस के टिकट की चाह भी जताते रहे।

यह वही विरोधाभास था जिसने ठुकराल की राजनीतिक विश्वसनीयता को कमज़ोर किया। कांग्रेस को यह कैसे स्वीकार्य होता कि जो व्यक्ति कल तक भाजपा के हिंदुत्व का चेहरा था, वही आज “सेक्युलर कांग्रेस” का झंडाबरदार बने?
बेहड़ भली-भाँति जानते थे कि ठुकराल जैसे नेता को यदि बिना आत्मालोचना के कांग्रेस में शामिल किया गया तो यह संगठनात्मक असंतुलन पैदा करेगा।

फिर भी, सियासत में कुछ भी असंभव नहीं। बेहड़ ने यह संकेत ज़रूर दिया कि राजनीति में “कोई दरवाज़ा बंद नहीं होता।”


छठ पूजा से उठी सियासी लहर

ठुकराल और भाजपा विधायक शिव अरोड़ा की छठ पूजा में सूर्य आराधना की तस्वीरें जब हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स ने प्रमुखता से प्रकाशित कीं, तब सियासी हल्कों में नई चर्चा शुरू हुई —
क्या ठुकराल दो नावों पर सवार हैं?
क्या वे भाजपा से मोहभंग के बावजूद हिंदुत्व की प्रतीक छवियों से अलग नहीं हो पा रहे?

ठुकराल का यही “दोहरी भूमिका वाला” रुख उन्हें राजनीतिक हास्य का विषय भी बना गया है। जनता कहने लगी —

“ठुकराल जी की राजनीति वही है — जो न घर के रहे, न घाट के।”


कांग्रेस में प्रवेश की शर्तें और ‘राजनीतिक आत्मसमर्पण’

कांग्रेस में प्रवेश ठुकराल के लिए आसान नहीं होगा। बेहड़ जैसे सीनियर नेता कभी नहीं चाहेंगे कि बिना शर्त या बिना आत्ममंथन के कोई नेता पार्टी में आए।

अगर ठुकराल को वास्तव में कांग्रेस में जगह चाहिए तो उन्हें “राजनीतिक आत्मसमर्पण” करना पड़ेगा —

  1. भाजपा और उसकी विचारधारा से सार्वजनिक रूप से मोहभंग की घोषणा करनी होगी।
  2. पार्टी में रहते हुए हुए अन्याय, टिकट कटने, और अपमान का विस्तार से उल्लेख करना होगा।
  3. मोदी और धामी सरकार की नीतियों पर खुला हमला बोलना होगा।

यानी जो नेता कल तक “भाजपा मेरी माँ है” कह रहा था, अब उसे “भाजपा मेरी भूल थी” कहना पड़ेगा।
और यही वह क्षण होगा जब कांग्रेस में प्रवेश उनकी “राजनीतिक पुनर्जन्म” की तरह माना जाएगा।


तिलक राज बेहड़ की रणनीति – ‘शतरंज का नया मोहरा’

तिलक राज बेहड़ अपने राजनीतिक जीवन के उस दौर में हैं जहाँ उन्हें अब अपने उत्तराधिकारी तैयार करने की ज़रूरत है।
वे जानते हैं कि किच्छा की जनता बार-बार एक ही चेहरे से ऊब सकती है। इसलिए यदि ठुकराल जैसे विवादास्पद परंतु प्रभावशाली नेता को अपने पाले में लाया जाए, तो रुद्रपुर में कांग्रेस का “खोया हुआ जनाधार” वापस मिल सकता है।

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ठुकराल के कांग्रेस में आने की स्थिति में पार्टी रुद्रपुर से उन्हें टिकट दे सकती है, जबकि बेहड़ खुद किच्छा से हटकर रुद्रपुर की बिसात बिछा सकते हैं।

इस समीकरण के दो लाभ हैं —

  1. पंजाबी मतदाताओं का ध्रुवीकरण, जो दोनों क्षेत्रों में निर्णायक हैं।
  2. किच्छा में नया चेहरा, जिससे मतदाता “थकान” महसूस न करें।

लेकिन इस समीकरण का खतरा भी उतना ही बड़ा है —
अगर ठुकराल चुनाव हारते हैं, तो सारा ठीकरा बेहड़ पर फूटेगा।
और अगर ठुकराल जीतते हैं, तो पार्टी के भीतर उनका “अहंकार पुनर्जीवित” हो जाएगा।


राजेश शुक्ला: किच्छा का ‘स्थायी समीकरण’

कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण चेहरा राजेश शुक्ला हैं — भाजपा के अनुशासित, जमीनी और संगठन से जुड़े नेता, जिन्होंने हरीश रावत जैसे दिग्गज मुख्यमंत्री को भी मात दी थी।
किच्छा की जनता आज भी उन्हें “स्थायित्व” का प्रतीक मानती है।

जहाँ ठुकराल की राजनीति नाटकीय मोड़ों और व्यक्तिगत बयानबाज़ी पर टिकी रही, वहीं शुक्ला ने संगठन और समाज दोनों से रिश्ता बनाए रखा।
यही कारण है कि ठुकराल के लिए किच्छा में पैर जमाना बेहद मुश्किल होगा — चाहे वे कांग्रेस में हों या निर्दलीय।


किच्छा बनाम रुद्रपुर: दो संस्कृतियों की सियासत

किच्छा की सियासत में भावनाएँ हैं, गाँव की गंध है, और एक स्वाभिमान है। यहाँ के मतदाता नोटों के बोरे देखकर नहीं झुकते।
यहाँ “निष्ठा” और “विश्वास” ही वोट की दिशा तय करते हैं।
जबकि रुद्रपुर की सियासत में शहरी चमक-दमक, व्यापारिक लॉबी और पैसे की ताकत निर्णायक भूमिका निभाती है।

ठुकराल जैसे नेता, जिनकी छवि आक्रामक और शहरी है, वे किच्छा की इस मिट्टी में कैसे फिट बैठेंगे — यह एक बड़ा सवाल है।
अगर कांग्रेस उन्हें किच्छा से उतारने की गलती करती है, तो यह उनके लिए “राजनीतिक आत्मघात” साबित हो सकता है।


राजकुमार ठुकराल: एक ‘राजनीतिक हास्य चरित्र’ की ओर

एक समय था जब रुद्रपुर में ठुकराल का नाम सुनते ही भीड़ जुटती थी।
आज वही ठुकराल जनता के बीच मज़ाक का विषय बन गए हैं।
उनकी स्थिति कुछ वैसी है जैसे एक अभिनेता जो अपने पुराने संवादों को बार-बार दोहराकर दर्शकों को हँसाने की कोशिश करता है।

उनकी सबसे बड़ी गलती — “सियासी दिशा का अभाव।”
कभी भाजपा का सबसे वफादार चेहरा, कभी कांग्रेस की तरफ झुकाव, और कभी निर्दलीय बनने की धमकी।
जनता ऐसे नेताओं से ऊब चुकी है जो हर चुनाव के पहले “पार्टी बदलने का मनोवैज्ञानिक ड्रामा” करते हैं।


2027: ठुकराल बनेगा ‘राजनीतिक बली का बकरा’?

राजनीतिक गणित यही कहता है कि 2027 में अगर बेहड़ रुद्रपुर से उतरते हैं, तो ठुकराल को किच्छा भेजा जाएगा।
लेकिन यह रणनीति उन्हें “बलि का बकरा” बना सकती है।

किच्छा में ठुकराल को न तो जमीनी कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलेगा, न वहाँ की ग्रामीण जनता का भावनात्मक जुड़ाव।
ऐसे में हार निश्चित होगी, और ठुकराल की राजनीतिक यात्रा “अंतिम अध्याय” की ओर बढ़ जाएगी।


ठुकराल के लिए अंतिम रास्ता – ‘रुद्रपुर संघर्ष समिति’ और निर्दलीय विकल्

यदि ठुकराल सचमुच राजनीति में जीवित रहना चाहते हैं, तो उन्हें किसी पार्टी के पाले में नहीं, बल्कि जनता के साथ खड़ा होना चाहिए।
रुद्रपुर की मूल समस्याओं — बेरोज़गारी, आवास, वेंडिंग जोन, अवैध कब्जे, ट्रैफिक और अपराध — को लेकर उन्हें “रुद्रपुर संघर्ष समिति” जैसी जनजागरण संस्था का गठन करना चाहिए।

अगर वे कांग्रेस या भाजपा से मोहभंग दिखाते हुए एक स्वतंत्र जननेता के रूप में उभरते हैं, तो जनता उन्हें एक बार फिर गंभीरता से देख सकती है।
क्योंकि जनता अब नारेबाज़ी नहीं, मुद्दों पर नेतृत्व चाहती है।

निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ठुकराल को यह दिखाना होगा कि वे किसी “दल” नहीं, बल्कि “जनता के दिल” के उम्मीदवार हैं।


राजनीति में समीकरण बदलते हैं, लेकिन विश्वास स्थायी होता है

रुद्रपुर–किच्छा की सियासत आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ हर नेता अपने भविष्य की गारंटी तलाश रहा है।
तिलक राज बेहड़ अनुभवी हैं, उनकी रणनीति में गहराई है।
राजेश शुक्ला अपनी जड़ों से जुड़े हैं, उनका संगठनात्मक आधार मज़बूत है।
और राजकुमार ठुकराल — वे एक ऐसे नेता हैं जिनकी दिशा हर साल बदल जाती है, पर मंज़िल अब भी दूर है।

यदि उन्होंने इस बार भी “राजनीतिक नौटंकी” का रास्ता चुना, तो 2027 उनके लिए “राजनीतिक सूर्यास्त” साबित होगा।
लेकिन अगर उन्होंने खुद को जनता की आवाज़ के रूप में स्थापित किया, तो शायद इतिहास उन्हें एक नया अवसर दे सके।

फिलहाल, रुद्रपुर और किच्छा दोनों जगह एक ही सवाल गूंज रहा है —

“राजकुमार ठुकराल, अबकी बार किस पार?”




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