संपादकीय ,उत्तराखंड में “पत्नी” के नाम पर सत्ता और सरकारी तंत्र का खेल — कब तक?

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यह उत्तराखंड है, साहब! यहां कुछ भी संभव है। सत्ता, सिस्टम और संबंधों का ऐसा ताना-बाना है कि भ्रष्टाचार की नई-नई कहानियां रोज जन्म लेती हैं। ताजा मामला उत्तराखंड पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (UPCL) के जूनियर इंजीनियर का है, जिसने अपनी पत्नी के नाम पर कंपनी बनाकर स्मार्ट मीटर लगाने का ठेका हथिया लिया। मूल कंपनी को लगातार देरी पर नोटिस भेजे जा रहे थे, पर असल खेल तो भीतर ही भीतर चल रहा था — विभाग का ही कर्मचारी अपनी ही पत्नी की कंपनी के जरिए सरकारी काम का सबलेट ले बैठा था। यानी बगल में खड़ा आदमी ही लूट का हिस्सा बन चुका था।

संवाददाता,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ अवतार सिंह बिष्ट/उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी!

और ये कोई पहली बार नहीं है। याद कीजिए, कुछ महीने पहले ऊर्जा निगमों और उरेडा (UREDA) के इंजीनियरों का मामला सामने आया था। इन्होंने सीएम सौर स्वरोजगार योजना के तहत अपने-अपने या अपनी पत्नियों के नाम पर सोलर प्लांट लगाकर सरकारी सब्सिडी डकारनी चाही। शासन को भनक लगी तो प्रमुख सचिव ऊर्जा ने साफ निर्देश दिए — न कोई सब्सिडी मिलेगी, न ही इस लूट को बख्शा जाएगा। पर सवाल यही है — आखिर ऐसी नौबत आती ही क्यों है?

उत्तराखंड में एक “ट्रेंड” सा बन गया है — पत्नी के नाम पर कंपनियां, एनजीओ, ठेके, दुकानों के लाइसेंस, होटल, रिजॉर्ट, यहां तक कि सोलर प्लांट तक। कागज पर सब कुछ “लीगल” दिखता है, पर असली मालिक तो वही पति, भाई, रिश्तेदार या रसूखदार होते हैं, जिन पर नियम-कानून लागू होने चाहिए। यह सब इसलिए भी होता है क्योंकि सरकारी व्यवस्था की रग-रग में रिश्वत, कमीशन और नजदीकी रिश्तों का जहर घुला पड़ा है।

यही हाल राजनीति में भी है। “प्रधान-पति” या “विधायक-पति” का जिक्र कर लीजिए। पंचायत चुनावों से लेकर नगर निगम और विधानसभा तक, महिलाएं सिर्फ नाम की प्रतिनिधि होती हैं। असली कुर्सी पर बैठे होते हैं उनके पति या रिश्तेदार। और फिर वही खेल — ठेके, योजनाओं की मंजूरी, कमीशनखोरी। महिला सशक्तिकरण के नाम पर पूरे सिस्टम को एक परदा मिल जाता है, जिसके पीछे हर गैरकानूनी काम धड़ल्ले से चलता रहता है।

यह सवाल केवल एक JE या ऊर्जा विभाग का नहीं है। यह सवाल उस सोच का है, जो अपने पद और सिस्टम को अपनी निजी जागीर समझती है। क्या विभागीय जांचें ही काफी हैं? कितने JE, कितने प्रधान-पति, कितने इंजीनियर और कितने नेता बच निकलते हैं इन जांचों से? आखिर कब तक हम “यह उत्तराखंड है, यहां कुछ भी हो सकता है” कहकर चुप रहेंगे?

सरकार को अब एक कड़ा फैसला लेना होगा।

  • पहला, सभी विभागों में यह अनिवार्य हो कि कोई सरकारी कर्मचारी या उसके परिजन, जिनके नाम पर कोई व्यवसाय, ठेका, कंपनी या प्रोजेक्ट चल रहा है, वह विभागीय कामकाज में किसी भी तरह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित न हो।
  • दूसरा, प्रत्येक सरकारी कर्मी और जनप्रतिनिधि की संपत्ति और उनके परिजनों के व्यवसायों का वार्षिक खुलासा सार्वजनिक पोर्टल पर होना चाहिए।
  • तीसरा, महिला प्रतिनिधियों की वास्तविक भूमिका सुनिश्चित की जाए। अगर कोई महिला जनप्रतिनिधि है, तो प्रशासनिक बैठकों और निर्णयों में उन्हीं की उपस्थिति अनिवार्य हो, न कि उनके पतियों की।

क्योंकि उत्तराखंड के लोग अब यह नहीं सुनना चाहते कि “यहां कुछ भी हो सकता है।” वे चाहते हैं कि यहां कुछ अच्छा हो, कुछ सच्चा हो और कुछ ईमानदार हो।


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