उत्तराखंड में नियुक्तियों का इतिहास—‘बाबा की बपौती’ की तर्ज पर!पीके कौन? मिश्रा कौन? और उत्तराखंड में नियुक्तियों का माज़रा!कुमाऊं विश्वविद्यालय की ‘शिक्षा नीति’—जो न नीति है, न शिक्षा!उत्तराखंड प्रशासन में चयन का नया पैमाना: टोटका, तुक्का और तिकड़म’

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उत्तराखंड राज्य को बने दो दशक से ज्यादा हो चुके हैं, मगर सरकारी तंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही अब भी ‘भावी परियोजनाओं’ की सूची में कहीं दबी हुई है। कुमाऊं विश्वविद्यालय में भौतिकी प्राध्यापक की नियुक्ति को लेकर उठा ताज़ा विवाद केवल एक नियुक्ति का मामला नहीं, बल्कि ये पूरे सिस्टम की उस सड़ी हुई परत को उजागर करता है जिसमें नाम, शॉर्ट नेम और “सिफारिश” के आधार पर भविष्य गढ़े जाते हैं। पवन मिश्रा का चयन हुआ, मगर नियुक्ति दे दी गई प्रमोद मिश्रा को—क्यों? क्योंकि दोनों का शॉर्ट नेम “पीके मिश्रा” था!

शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता

कुमाऊं विश्वविद्यालय की ‘शिक्षा नीति’—जो न नीति है, न शिक्षा

डीएसबी परिसर में वर्ष 2005 में हुई नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर पवन मिश्रा आज भी दिल्ली से न्याय की गुहार लगा रहे हैं। पवन को चयन समिति ने चुना, मगर नियुक्ति पत्र थमा दिया गया प्रमोद को—और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि दोनों नाम “पीके मिश्रा” से शुरू होते हैं। क्या ये प्रशासनिक गलती थी या सोची-समझी साजिश?

शॉर्ट नेम स्कैम’—PK मतलब Political Knowledge?

पवन मिश्रा की याचिका के अनुसार प्रमोद की नियुक्ति केवल नाम की समानता के आधार पर कर दी गई। सोचिए, अगर कल को “आर शर्मा” और “आरके शर्मा” एक ही समझ लिए जाएं तो? क्या ये किसी फिल्मी कॉमेडी का हिस्सा है या विश्वविद्यालय की वास्तविकता?

हाई कोर्ट का हस्तक्षेप और विश्वविद्यालय की ‘खलबली’

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने कुमाऊं विवि से दो सप्ताह में अभिलेख तलब किए हैं। विवि ने पहले भी जांच कमेटी बनाई थी, मगर क्या वो कमेटी भी ‘पीके’ यानी ‘प्रोटोकॉल के अंतर्गत’ बनाई गई थी?

उत्तराखंड में नियुक्तियों का इतिहास—‘बाबा की बपौती’ की तर्ज पर

राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक की नियुक्तियों की जांच होनी चाहिए। हर तीसरा नियुक्त व्यक्ति किसी न किसी राजनेता, अफसर या दलाल का ‘पीके’—‘प्यारा कैंडिडेट’ निकलता है। योग्य लोग फाइलों में धूल फांकते हैं और ‘चहेते’ लोग कुर्सी फांकते हैं।

शासन-प्रशासन की चुप्पी—’ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ पर अमल

उत्तराखंड सरकार की चुप्पी इस मामले में भी वही पुराना रुख दिखाती है—“हम देखेंगे… लेकिन अभी नहीं।” ऐसा लगता है जैसे सरकार भी जांच कमेटियों की सरकार है, परिणामों की नहीं।

क्या शिक्षा विभाग से ज्यादा जरूरी हो गया शॉर्ट नेम मैच करना?

शिक्षा विभाग की विश्वसनीयता तब टूटती है जब चयन और नियुक्ति में नाम के आधार पर खेल खेला जाता है। क्या ऐसे में छात्रों को यह बताया जाना चाहिए कि ‘नाम बड़ा हो या काम—कुर्सी तो पीके को ही मिलेगी?’

व्यंग्यात्मक अंत—’उत्तराखंड प्रशासन में चयन का नया पैमाना: टोटका, तुक्का और तिकड़म’

अब वक्त आ गया है कि उत्तराखंड में भर्ती बोर्ड की जगह ‘नाम ज्योतिष केंद्र’ खोल दिए जाएं। कौन किस कुर्सी पर बैठेगा, यह कुंडली नहीं, नाम की मात्रा और शॉर्ट नेम तय करेंगे।

कुमाऊं विश्वविद्यालय की एक नियुक्ति ने फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि उत्तराखंड में योग्यता की कीमत सिर्फ तब होती है जब उसमें ‘सिफारिश’ की चटनी लगी हो। पवन मिश्रा की लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं, हर उस युवा की है जो सिस्टम से हार मान चुका है। और यही वजह है कि उत्तराखंड को अब एक सशक्त लोकायुक्त, पारदर्शी नियुक्ति प्रणाली और जवाबदेह शिक्षा व्यवस्था की ज़रूरत है।



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