
सरकारी विभागों के अनुसार ऐसी बस्तियों का आंकड़ा 582 तक पहुंच चुका है लेकिन असलियत में इनकी संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
उत्तराखंड की नदियों के आसपास अवैध कब्जे करने वालों पर कभी कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गई। साथ ही लोगों को अवैध रूप से बसाने वालों की ही नकेल कसी गई। इसके लिए जिम्मेदार सरकारी महकमों के अधिकारियों-कर्मचारियों की भी कभी जवाबदेही तय नहीं की गई। इन अवैध कब्जों के लिए सीधे तौर पर सिंचाई विभाग के साथ ही स्थानीय नगर निगम, विकास प्राधिकरण और जिला प्रशासन की सीधी भूमिका रही। इनकी लापरवाही और मिलीभगत से ही नदियों पर खुलेआम अवैध कब्जे हुए। उधर, अवैध बस्तियों को लेकर सरकारी की ओर से जारी आंकड़ों में सबसे खराब रिकॉर्ड राजधानी देहरादून का रहा। यहां मलिन बस्तियों की संख्या 129 बताई गई। इस मामले में एनजीटी की सख्ती के बाद जिलों में चिन्हित बाढ़ प्रभावित क्षेत्र की अधिसूचना जारी की गई। चिन्हित क्षेत्र में नदी तट के सौ मीटर तक नये निर्माण पर रोक प्रभावी हो गई है।
उत्तराखंड में नदियों के किनारों पर कहीं अवैध रूप से लोगों ने घर बना लिए हैं, कहीं रसूखदारों ने बड़े-बड़े कब्जे कर नदियों के बहाव को बाधित कर दिया है। ऐसा नहीं है कि अतिक्रमण सिर्फ निजी रूप से लोगों ने ही किया, बल्कि सरकारी निर्माणों ने भी नदियों का गला घोंटने का काम किया है। प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों के साथ ही पहाड़ों पर भी नदी के किनारों पर अवैध कब्जों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इससे जगह-जगह नदियों का बहाव बाधित हो रहा है जो कई स्थानों पर आपदा के रूप में कहर ढा रहा है।
प्रदेश में अवैध कब्जों और मलिन बस्तियों को लेकर सरकार द्वारा वर्ष 2016 में कराए गए एक सर्वे के बाद 582 बस्तियों का अधिकृत आंकड़ा जारी किया गया। इसके बाद फिर और कोई सर्वे नहीं हुआ। ऐसे में जानकारों की माने तो अब मौके पर मलिन बस्तियों की संख्या 600 को और आबादी का आंकड़ा 10 लाख को पार कर चुका है।
सलाह: बारिश का विश्लेषण करके उठाए जाएं जरूरी कदम
वर्तमान में प्रदेश की अधिकतर नदियों के किनारों पर काफी अतिक्रमण हो गए हैं। इससे नदी-नाले बहुत संकरे हो गए हैं। नदी-नालों और गदेरों की यही स्थिति आपदा का सबब साबित हो रही है। शहरी क्षेत्रों में ऐसे नदी-नालों की संख्या ज्यादा है जो बड़े पैमाने पर अतिक्रमण का शिकार हैं। प्रो.बिष्ट ने सलाह दी कि बीते वर्षों के बारिश के रिकार्ड का विश्लेषण किया जाए। इसके आधार पर नदियों का अधिकतम बाढ़ क्षेत्र तय करके उस इलाके को अतिक्रमण मुक्त कराया जाए।
सवाल: समय रहते क्यों नहीं उठाए कदम ?
धराली, थराली, छेनागाड़ व देहरादून में आई आपदाओं ने प्रदेशभर में नदी किनारे पर बसे शहरों-कस्बों की सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ाने के साथ सवाल भी खड़े कर दिए हैं। राज्य में ऐसे शहर, नगर और कस्बों की संख्या कम नहीं है। इन सभी की बसावट पहले नदियों से काफी दूर थी। धीरे-धीरे अतिक्रमण बढ़ने लगा। लोगों ने नदियों और गाड़-गदेरों के किनारों पर घर बना लिए जिससे जलप्रवाह के लिए संकरी राह रह गई। ऐसे में बड़ा यह सवाल है कि इस मामले में समय रहते कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
सरकारी निर्माण की कैसे मिली मंजूरी?
गढ़वाल यूनिवर्सिटी के प्रो.एमपीएस बिष्ट ने कहा कि दून की बात करें तो सवालों के घेरे में सबसे पहले सरकारी निर्माण ही आते हैं। इनमें विधानसभा भवन, मत्स्य निदेशालय,स्वास्थ्य महानिदेशालय,यूसैक, अभिलेखागार,खनन निदेशालय,सुद्धोवाला जेल आदि ऐसे कई बड़े निर्माण हैं जो विभिन्न सरकारी विभागों ने कराए हैं। उत्तराखंड में बीते कुछ वर्षों में शहरों-कस्बों के साथ नदियों के किनारों पर भी अतिक्रमण में बेतहाशा तेजी आई है। इन पर रोक लगाने की पहल बहुत पहले हो जानी चाहिए थी लेकिन इस दिशा में अब भी ठोस प्रयास शुरू नहीं हुए हैं।
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पूर्व अधिशासी निदेशक डॉ.पीयूष रौतेला का कहना है कि तेजी से होते शहरीकरण का सबसे ज्यादा नुकसान नदियों, नालों, गाड़-गदेरों के प्राकृतिक मार्गों को पहुंचा है। नदी-नाले संकरे होने से पानी की मात्रा बढ़ने पर बड़ा नुकसान होता है।
आपदा के निशाने पर अवैध निर्माण
उत्तराखंड में नदियों के किनारे बेतरतीब और बेतहाशा अतिक्रमण ने नदियों का स्वरूप बदल दिया है। इसी के चलते नदियों के कैचमेंट एरिया में होने वाली बारिश तबाही का कारण साबित हो रही है और आपदा के निशाने पर अवैध निर्माण ही हैं।
गढ़वाल विश्वविद्यालय में भू-विज्ञान विभाग के एचओडी प्रो.एमपीएस बिष्ट का कहना है कि राज्य में मानसून सीजन के दौरान आने वाली आपदाओं का विश्लेषण करें तो अधिकांश का पैटर्न एक सा दिखाई देता है। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा हो या फिर रैणी का हादसा या इसी सीजन में धराली, थराली, छेनागाड़ और देहरादून के अलग-अलग क्षेत्रों में आई आपदा। यह सभी आपदाएं नदी और गदेरों के आसपास किए गए निर्माण कार्यों की वजह से भयावह हुईं और इसीलिए जनहानि भी बढ़ गई।
प्रो.बिष्ट ने देहरादून का उदाहरण देते हुए कहा कि यहां रिस्पना, बिंदाल, सौंग, तमसा, सुसवा, टोंस व इनकी सहायक नदियों के आसपास देख लीजिए। इन सभी की चौड़ाई पहले क्या थी और आज क्या रह गई है। उक्त सभी नदियों के किनारों पर हुआ निर्माण भविष्य के लिए बहुत बड़े खतरे की चेतावनी है। ऐसे में सतर्क रहने के साथ ही जरूरी है कि समय रहते ही आवश्यक कदम उठाए जाएं।
नदियों के किनारे बसे डेंजर जोन वाले शहर
भागीरथी: उत्तरकाशी, चिन्यालीसौड़, धरासू और देवप्रयाग।
अलकनंदा: बदरीनाथ से लेकर चमोली, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, देवप्रयाग।
मंदाकिनी: केदारनाथ, गौरीकुंड, रामबाड़ा, गुप्तकाशी और रुद्रप्रयाग।
रामगंगा: धुनारघाट, दाड़मडाली, सैंजी, मेहलचौरी, चौखुटिया, मासी और भिकियासैंण।
गौला नदी: हैड़ाखान, काठगोदाम, हल्द्वानी, किच्छा।
कोसी नदी: धानाचूली, खैरना, गरमपानी, बेतालघाट व रामनगर।
सरयू नदी: बागेश्वर, कपकोट, भराड़ी, घाट, देवलचौड़, सेराघाट।
काली नदी: धारचूला, छ्यारछुम, जौलजीवी, बलुआको।
यमुना: स्यानाचट्टी, हरिपुर कालसी, डाकपत्थर, विकासनगर, आदि क्षेत्र डेंजर जोन में आते हैं।
एनजीटी की सख्ती के बाद टूटी नींद
प्रदेशभर में विभिन्न नदियों के किनारे पर लगातार हो रहे अवैध कब्जों पर सरकारी महकमों की नींद, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की सख्ती के बाद टूटी। इस मामले में एनजीटी में नियमित रूप से होने वाली सुनवाई में विभागों को नदी किनारे के अवैध कब्जों का ब्योरा देना पड़ रहा है। इन अवैध कब्जों को हटाने के लिए की जा रही कार्रवाई की जानकारी भी नियमित रूप से मांगी जा रही है।


