
अभी वह और 30-40 वर्ष जीवित रहेंगे. उनके विश्वास भरे इस कथन से जहां तिब्बत की निर्वासित सरकार और तिब्बती बौद्ध धर्म को नई आशा मिली है तो वहीं चीन इससे बौखला गया है.


चीन दलाई लामा से चिढ़ता रहा है
चीन दलाई लामा से हमेशा से चिढ़ता रहा है और उसकी साम्राज्यवाद विस्तार की नीति उससे ऐसा करवाती आ रही है. तिब्बत को पूरी तरह से अपने कब्जे में लेने के उसके मंसूबे में दलाई लामा बड़ी रुकावट हैं. चीन से तकरार का ही नतीजा था कि आज से 66 साल पहले दलाई लामा को रातो रात तिब्बत के अपने निवास से पलायन करना पड़ा और भारत में शरण लेनी पड़ी.
संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
दलाई लामा का तिब्बत से पलायन
बीसवीं सदी में घटी यह घटना इतिहास में मानवतावाद के पलायन की सबसे बड़ी घटना के तौर पर दर्ज है. अपनी पुस्तक My Land and My People में दलाई लामा इस निराशा से भरी घटना का जिक्र करते हैं और विस्तार से बताते हुए लिखते हैं कि ‘1959 में मार्च की पहली ही तारीख से कैसे स्थिति बिगड़ने लगी और फिर अगले 15 दिनों में तनाव ऐसा बढ़ा कि मुझे तिब्बत से निकलना पड़ा, ताकि रक्तपात को रोका जा सके.’
क्या किसी जादुई धुंध ने दलाई लामा को बचाया था?
दलाई लामा की 1959 की ल्हासा से भारत की पलायन यात्रा उन्हें चुशुल, ल्होका, क्यीचु घाटी, हिमालय को पार करते हुए खेंज़िमाने के पास भारत में प्रवेश करने और आखिरी में असम के तेजपुर तक ले आई. हर रात, वे चलते. हर दिन, वे छिपते. भोजन की कमी, कठिन इलाकों की यात्रा और खराब मौसम. लेकिन वे आगे बढ़ते रहे. क्यीचु नदी को पार करते हुए, ऊंचे-ऊंचे घाटियों, मठों और विद्रोही शिविरों से गुजरते हुए. बाद में, तिब्बतियों में अफवाहें फैलीं कि दलाई लामा को “बौद्ध पवित्र लोगों की प्रार्थनाओं से बने धुंध और निचले बादलों ने लाल विमानों (शीत युद्ध-युग में कम्युनिस्ट विमानों का नाम) से बचाया,” इसका जिक्र TIME की 1959 की कवर स्टोरी में भी किया गया था.
कैसे बनी पलायन की प्लानिंग?
दलाई लामा लिखते हैं कि ‘ल्हासा में सीसीपी कमांडर ने मुझे अपने सैन्य मुख्यालय में एक नृत्य समारोह में शामिल होने के लिए निमंत्रण दिया, लेकिन यह भी कहा कि मैं बिना अंगरक्षकों या सहायकों के वहां आऊं. इस निमंत्रण से ही लोग डर गए कि मेरा अपहरण या मेरी हत्या भी हो सकती है. हजारों तिब्बती सड़कों पर उतर आए, और ल्हासा के नोरबुलिंगका, दलाई लामा के ग्रीष्मकालीन महल के चारों ओर एक ह्यूमन बैरिकेड बना लिया.’
17 मार्च 1959 को शुरू हुई यात्रा
‘पोटाला पैलेस, (ल्हासा की रेड हिल के ऊपर) सर्दियों में औपचारिक सत्ता और आध्यात्मिक अधिकार का केंद्र था. सीसीपी नेता के निमंत्रण के बाद, महल की दीवारों के भीतर बहस छिड़ गई. राज्य के दैवज्ञ से तीन बार सलाह ली गई. उन्होंने स्पष्ट तौर पर जवाब दिया था– जाना होगा… दलाई लामा यहां लिखते हैं कि इस सलाह के बाद ही पलायन की भूमिका बनने लगी थी. क्योंकि अब वहां रहकर सामना नहीं किया जा सकता था, परंपरा को बचाए रखना भी जरूरी था. दैवज्ञ ने स्पष्ट कहा- अभी जाओ और उनके आदेश पर 17 मार्च को ये यात्रा शुरू की गई. ल्हासा को पीएलए सैनिकों, टैंकों और तोपखाने ने घेर लिया था.’
सैनिक के छद्म वेश में निकले
दलाई लामा के शब्दों में पलायन बहुत भारी और बेहद कठिनता से भरा फैसला था. 17 मार्च की उस धुंधली रात को, मैंने एक सैनिक की वर्दी में छद्म वेश धारण किया. अपनी मां, भाई-बहनों, शिक्षकों और कुछ वफादार अधिकारियों के साथ, अंधेरे में ही नोरबुलिंगका के पिछले द्वार से हम सभी निकल गए. “रात 10 बजे से कुछ मिनट पहले, सभी क्यीचु नदी (शहर के दक्षिण) की ओर बढ़े, जहां उनके परिवार के कुछ सदस्यों सहित बाकी सहायक भी दल में शामिल हुए.
छोटी नावों से नदी पार की
वह लिखते हैं कि, ‘हमारी यात्रा नदी की ओर शुरू हुई, रास्ते में हमें एक बड़ी भीड़ मिली. मेरे चैंबरलेन ने उनके नेताओं से बात करने के लिए रुकने का फैसला किया. कुछ लोगों को पहले से चेतावनी दी गई थी कि मैं उस रात जा रहा हूं. बातचीत के बाद, हमने छोटी नावों, (कोराकल्स) में नदी पार की. दूसरी ओर, मैं अपने परिवार से मिला. मेरे मंत्री और शिक्षक, जो नोर्बुलिंग्का से एक ट्रक में तिरपाल के नीचे छिपकर निकले थे, वह भी वहां हमसे मिले. लगभग तीस खम्पा सैनिक, तीन नेताओं, कुंगा समतेन, तेम्पा थार्गे, और केवल बीस साल के एक बहुत बहादुर लड़के वांग-त्सेरिंग के साथ हमारा इंतजार कर रहे थे.
हमने इन नेताओं के साथ स्कार्फ का आदान-प्रदान किया, जो तिब्बती परंपरा में सम्मान और एकजुटता का प्रतीक है. उन्होंने परिस्थितियों में जितना संभव था, उतनी अच्छी व्यवस्था की थी. मठ के प्रबंधक ने हमारे लिए घोड़े जुटाए थे, हालांकि अच्छी जीन नहीं मिल सकी थी. जल्दी-जल्दी में फुसफुसाहट के साथ अभिवादन करने के बाद, हम तुरंत घोड़ों पर सवार होकर निकल पड़े.
शुरू हुआ खतरनाक यात्राओं का सिलसिला
शुरुआती कुछ मील सबसे खतरनाक थे. रास्ता डरावना और जानलेवा था. एक संकरी, पथरीली पगडंडी थी जो नदी के ऊपर एक पहाड़ी के किनारे से गुजरती थी. दाईं ओर हमें चीनी शिविर की रोशनी दिखाई दे रही थी. हम आसानी से उनकी रेंज में थे, और यह नहीं पता था कि उन्होंने नदी के काले किनारों पर कौन-सी गश्त लगाई थी. मैं एक बार पगडंडी से भटक गया और मुझे अपने टट्टू को मोड़कर वापस जाना पड़ा. फिर हमें पीछे से टिमटिमाती मशालें दिखीं, और कुछ देर के लिए लगा कि चीनी हमारे पीछे हैं. लेकिन वे तिब्बती सैनिक थे, जो हमारे समूह के कुछ अन्य लोगों को रास्ता दिखाने की कोशिश कर रहे थे, जो गलत रास्ते पर चले गए थे और पूरी तरह से भटक गए थे.
हम उस खतरनाक जगह से सुरक्षित गुजर गए और लगभग तीन मील नीचे नदी के किनारे फिर से मिले. उस बिंदु के नीचे, नदी इतनी उथली थी कि ट्रक उसे पार कर सकते थे. अगर चीनी सैनिकों को खबर मिल जाती, तो वे दूसरी ओर से नीचे आकर हमें रोक सकते थे. इसलिए एक अधिकारी और कुछ सैनिकों को वहां रियरगार्ड के रूप में छोड़ दिया गया. बाकी लोग शहर से दूर, शांत और खाली ग्रामीण इलाके की ओर चलने लगे.
भारत जाने का नहीं था शुरुआती विचार
काफी दूर तक हमें आबादी के कोई निशान नहीं मिले, लेकिन तड़के करीब तीन बजे एक कुत्ता भौंका, और हमें सामने एक घर दिखा. चैंबरलेन ने पता करके बताया कि हम नामग्यालगंग में हैं.हमने वहां थोड़ा आराम किया. यह उन कई साधारण तिब्बती घरों में से पहला था जिनके मालिकों ने मुझे शरण दी, बिना किसी जोखिम की परवाह किए, कुछ को पता था कि मैं कौन हूं, और कुछ को नहीं. दलाई लामा लिखते हैं कि जब मैं नोर्बुलिंग्का से निकला, और इस यात्रा के इस पहले खतरनाक हिस्से के दौरान, मैं सीधे भारत जाने की नहीं सोच रहा था.
तिब्बत में ही कहीं दूर रुकने की थी उम्मीद
मुझे अभी भी उम्मीद थी कि मैं तिब्बत में कहीं रुक सकूंगा. भारत के लिए सामान्य रास्तों का इस्तेमाल करना असंभव था, क्योंकि वे चीनी सैनिकों द्वारा भारी निगरानी में थे. इसके बजाय, हम ल्हासा से दक्षिण और दक्षिण-पूर्व की ओर जा रहे थे. उस दिशा में, सड़कविहीन पहाड़ों का एक विशाल क्षेत्र था, जहां चीनी सेना के लिए बड़ी ताकत के साथ घुसना बहुत मुश्किल होता. वह लगभग अभेद्य क्षेत्र खम्पाओं और अन्य तिब्बतियों का एक प्रमुख गढ़ था, जो उनके साथ गुरिल्ला लड़ाकों के रूप में शामिल हो गए थे.
रा-मे मठ में बिताई रात
हमें ब्रह्मपुत्र नदी, जिसे तिब्बत में त्सांग पो कहा जाता है, उसे पार करना था, और उससे पहले हमें चे-ला नामक एक ऊंचा पहाड़ी दर्रा पार करना था. हम सुबह करीब आठ बजे चे-ला के तल पर पहुंचे और वहां चाय पी. यहां से चलकर हम सभी क्येशोंग पहुंचे जिसका अर्थ है हैप्पी वैली. जैसे ही नाव किनारे की ओर बढ़ी, हमने देखा कि एक बड़ी भीड़ हमें स्वागत करने के लिए इकट्ठा हुई थी, जिसमें खम्पा सैनिक और पीले और सफेद बैज वाले गांव के लोग शामिल थे. जब हम आगे बढ़े, तो मैंने देखा कि कई लोग रो रहे थे. वहां, मुझे लगा, तिब्बत के लोग थे जो सदियों से अपनी हैप्पी वैली में पूर्ण शांति और सद्भाव में रहते थे, और अब उन पर भयानक खतरा मंडरा रहा था. फिर भी उनका हौसला बुलंद था और उनका साहस अडिग था. यहां से हम रा-मे मठ की ओर बढ़े, जहां हमने रात के लिए रुकने का फैसला किया था.
ल्हासा में हुई भारी बमबारी
यहां से फिर आगे बढ़कर हम हम सुरक्षित रूप से चेन्ये पहुंच गए. चेन्ये में ही हमें पहली बार ल्हासा का ज़िक्र सुनाई दिया. यहीं यह भी पता चला कि चीनी सैनिकों और खम्पाओं में झड़प हुई और सबसे विनाशकारी खबर ये थी कि, ल्हासा पर बमबारी हो चुकी थी. दलाई लामा लिखते हैं कि बमबारी 20 मार्च की सुबह दो बजे शुरू हुई थी, मेरे जाने के सिर्फ 48 घंटे बाद. उस पूरे दिन उन्होंने नोर्बुलिंग्का पर बमबारी की, और फिर उन्होंने अपनी तोपों को शहर, पोताला, मंदिर और पड़ोस के मठों की ओर मोड़ दिया. कोई नहीं जानता कि ल्हासा के कितने लोग मारे गए, लेकिन नोर्बुलिंग्का के अंदर और बाहर हजारों शव देखे गए.
लागो-ला दर्रे पर पर भारी तूफान
सीमा के करीब पहुंचते ही यात्रा और कठिन हो गई. लागो-ला दर्रे पर हम एक भारी तूफान में फंस गए. ठंड इतनी थी कि हमारी उंगलियां और भौहें जम गई थीं. एक दिन, एक चीनी विमान हमारे ऊपर से गुजरा, जिससे हमें लगा कि वे हमें ढूंढ रहे हैं. हम छोटे समूहों में बंट गए. दो और दिन की सवारी के बाद, हम मंगमंग, तिब्बत की आखिरी बस्ती, पहुंचे. वहां हमें खबर मिली कि भारतीय सरकार हमें शरण देगी, लेकिन वहां मूसलाधार बारिश ने हमें परेशान किया. मेरा टेंट लीक कर रहा था, और मैं बीमार पड़ गया.
ल्हासा पर चीनी सेना का कब्जा
यहां यह बता दें कि, 19 मार्च तक चीनी सेना का ल्हासा पर कब्जा हो चुका था. चीनी सेना और स्थानीय लोगों की बीच संघर्ष में करीब 2000 लोगों की जानें चली गईं थीं. तिब्बत की सरकार को भंग कर उसे पूरी तरह PRC यानी पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना में मिला दिया गया. दलाई लामा को की खोज में चीनी सैनिक दिन रात लगे रहे. 26 मार्च को दलाई लामा और उनका ग्रुप ल्हुंत्से ज़ोंग (लुत्से जोंग) पहुंचा . यहां से मैकमहोन लाइन सिर्फ चंद दिनों की दूरी पर थी. रात में इस इलाके को पार कर वो आगे बढ़े और झोरा गांव होते हुए कार्पो दर्रे तक पहुंच गए. कार्पो के सबसे ऊंचे बिंदु पर पहुंचते ही उन्होंने देखा, एक प्लेन उनके ऊपर से गुजरा. दलाई लामा ने अपनी किताब में इसी घटना का जिक्र किया है.
लुत्से जोंग में तिब्बत की नई सरकार का गठन
लुत्से जोंग पहुंचकर दलाई लामा ने नई तिब्बत सरकार के गठन की रस्म अदा की. इस समारोह में करीब एक हजार लोगों ने भाग लिया, लेकिन यहां अब स्पष्ट हो चुका था कि तिब्बत में सीमा के पास भी नहीं रहा जा सकता है, यहां खतरा बना ही रहेगा. इसलिए भारत और अमेरिका को संदेश भेजे गए कि दलाई लामा सीमा पार कर भारत में शरण लेना चाहते हैं. इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई सीआईए के एक वरिष्ठ अफसर जॉन ग्रीनी ने, उन्हें 28 मार्च को ये संदेश मिला और उन्होंने तुरंत दिल्ली सूचना भेजकर दलाई लामा की स्थिति और उनकी मंशा के बारे में बताया.
पीएम नेहरू के लिए भेजे गए संदेश
इससे पहले 26 मार्च को दलाई लामा भारत के प्रधानमंत्री जवाहललाल नेहरू को भी संदेश भेज चुके थे, उनके मुताबिक, संदेश में दलाई लामा ने लिखा “पूरी दुनिया में भारत के लोग मानवीय मूल्यों के समर्थन के लिए जाने जाते हैं. हम सोना इलाके से भारत में प्रवेश कर रहे हैं. हमें आशा है कि आप भारत की धरती पर हमारे रहने का प्रबंध करेंगे. हमें आपकी मेहरबानी पर पूरी विश्वास है.” बीबीसी की रिपोर्ट भी इस वाकये को और विस्तार से पेश करते हुए दर्ज करती है कि उस वक्त भारत के दार्जिलिंग में रह रहे दलाई लामा के भाई ग्यालो थौनडुप प्रधानमंत्री नेहरू से मिल चुके थे.
तत्कालीन पीएम नेहरू ने शरण के लिए दी मंजूरी
ग्यालो थौनडुप ने भी अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसमें उन्होंने दलाई लामा के निर्वासन और भारत में शरण लेने के वाकये का जिक्र किया है. अपनी आत्मकथा ‘द नूडल मेकर ऑफ़ कलिंमपौंग’ में लिखते हैं, “मैं जवाहरलाल नेहरू से संसद भवन में मिला है. वहां मौजूद उनके दफ्तर में इस मुलाकात में इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख बीएन मलिक ने काफी मदद की. नेहरू ने मुझसे पहला सवाल पूछा कि दलाई लामा सुरक्षित तो हैं. मैंने जब दलाई लामा के भारत में शरण लेने के अनुरोध के बारे में उन्हें बताया तो पीएम नेहरू ने इसके लिए तुरंत ‘हां’ कर दी.”
31 मार्च 1959, भारत में दलाई लामा का प्रवेश
उधर, टोही विमान को देखने के बाद दलाई लामा सोच चुके थे कि जल्द ही भारत पहुंचना होगा. तब तवांग (अरुणांचल प्रदेश) के पास असम राइफल की एक आउटपोस्ट हुआ करती थी. सरकार ने यहां अधिकारियों को भेजकर निर्देश दिया कि दलाई लामा को सम्मानजनक रूप से भारत में प्रवेश दिया जाए. फिर आया 31 मार्च 1959 का वह दिन, जब दलाई लामा भारत में दाखिल हुए. यहां भारतीय अधिकारीयों ने उन्हें प्रधानमंत्री नेहरू का टेलीग्राम दिया.
आसाम राइफल की आउटपोस्ट से दलाई लामा को तवांग भेजा गया. दलाई लामा ने वहां आराम किया. दलाई लामा अपनी किताब में लिखते हैं कि. ‘यहां भारतीय अफसरों ने अच्छा आदर-सत्कार किया. और बहुत दिनों बाद ऐसा लगा कि मैं आजादी की हवा में सांस ले पा रहा हूं.
पीएम नेहरू से की मुलाकात
कुछ हफ्ते तवांग में रहने के बाद दलाई लामा परिवार सहित मसूरी पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात प्रधानमंत्री नेहरू से हुई. दलाई लामा ने नेहरू से 8000 तिब्बती शरणार्थियों को भारत की मंजूरी मांगी. नेहरू तैयार हो गए. इसके बाद तिब्बत से हजारों लोग भारत आए और यहां अलग-अलग इलाकों में बस गए. आगे जाकर दलाई लामा ने धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार का गठन किया और फिर कभी लौटकर तिब्बत नहीं गए.
दलाई लामा लिखते हैं कि, ‘यह यात्रा मेरे लिए केवल एक भौतिक यात्रा नहीं थी, बल्कि एक आध्यात्मिक और भावनात्मक यात्रा भी थी. यह मेरे लोगों की निष्ठा, साहस और बलिदान की कहानी है. यह एक ऐसी कहानी है जो तिब्बत की आत्मा को जीवित रखती है, भले ही मैं अब अपनी मातृभूमि से दूर हूं.
17 मार्च को वो तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकले थे और हिमालयी पहाड़ों, दर्रों, घाटियों और छोटी सर्पिल नदियों को पार करते हुए तकरीबन 15 दिनों की यात्रा के बाद भारतीय सीमा में दाखिल हुए.
अपने मठ से तो वह पहले ही निकल चुके थे और लगातार हो रहे चीनी हमलों और अपने तिब्बती लोगों की गिरती हुई लाशों को देखते हुए 14वें दलाई लामा को अपनी युवावस्था में यह में यै फैसला करना पड़ा कि उन्हें अब यहां से निकलना होगा.
दलाई लामा ने रातो-रात छोड़ा था तिब्बत
यात्रा के दौरान उनकी और उनके सहयोगियों की कोई ख़बर नही आने पर कई लोग ये आशंका जताने लगे थे कि उनकी मौत हो गई होगी. दलाई लामा के साथ कुछ सैनिक और कैबिनेट के मंत्री थे. चीन की नज़रों से बचने के लिए ये लोग सिर्फ रात को सफ़र करते थे. उस समय की बहुत सारी मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसे दावों की खबरें भी आईं कि ‘बौद्ध धर्म के प्रभावी लोगों और मॉन्क की प्रार्थनाओं के कारण धुंध भरे बादलों ने ऐसा असर पैदा किया कि लाल जहाजों की नजरें पलायन कर रहे दलाई लामा और उनके दल के लोगों पर नहीं पड़ीं.
कैसे बिगड़ने लगे हालात?
आज से 66 साल पहले क्या हुआ, कैसे हुआ और परिस्थितियां कैसी थीं? दलाई लामा अपनी बॉयोग्राफी में उस दौर का बड़ी निराशा भरे शब्दों में जिक्र करते हैं. My Land My People किताब में दलाई लामा लिखते हैं कि तिब्बत में स्थितियां खराब होने लगी थीं, क्योंकि चीनी हस्तक्षेप अब खुलकर बढ़ने लगा था. तिब्बत में भी चीन के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा था और देखा जाए तो अब हम सब भावनाओं के सक्रिय ज्वालामुखी पर बैठे थे. खैर, स्थिति अभी तक कुछ संभली हुई थी और इसी दौराना आया हमारा मोनलम फेस्टिवल.
1 मार्च 1959, क्या हुआ था उस रोज?
दलाई लामा लिखते हैं कि, ‘ये मार्च 1959 की पहली तारीख थी और ल्हासा के पवित्र जोखांग मंदिर में मोनलम उत्सव शुरू हो चुका था. इसलिए यह दिन खास था, लेकिन मेरे लिए और खास इसलिए क्योंकि मैं मेटाफिजिक्स के मास्टर की अंतिम परीक्षा दे रहा था. तिब्बत की राजनीतिक उथल-पुथल के बीच, मेरी धार्मिक शिक्षा मेरी सबसे बड़ी रुचि थी. लेकिन, एक अप्रत्याशित घटना हुई. लामा लिखते हैं कि ‘हालांकि यह उतनी भी अप्रत्याशित नहीं थी क्योंकि इस उथल-पुथल वाले माहौल में ये कभी भी होना ही था.
तिब्बत को थी दलाई लामा के अपहरण की आशंका
दो चीनी जूनियर अधिकारी मुझसे मिलने आए, चीनी जनरल तान कुआन-सेन के भेजे दो जूनियर अफसर मुझसे मिलने आए और उन्होंने लगभग जिद पकड़ ली कि मैं चीनी सैन्य शिविर में उनके नाटकीय प्रदर्शन के लिए तारीख तय करूं. उत्सव की व्यस्तता के कारण मैंने 10 मार्च को तारीख तय करने की बात कही. चीनी अफसरों के आने से संदेह और कुछ अप्रिय की आशंका इसलिए भी गहराई क्योंकि सामान्य तौर पर जनरल के संदेश मेरे वरिष्ठ चैंबरलेन या मुख्य अब्बोट के जरिए आते थे. चीनी शासन के तहत, निमंत्रण अस्वीकार करना जोखिम भरा था, क्योंकि इससे उनकी नाराजगी और अप्रिय परिणाम हो सकते थे.
दलाई लामा को कार्यक्रम में अकेले क्यों बुलाना चाहता था चीन
खैर, 5 मार्च को, मैं नोरबुलिंग्का के लिए रवाना हुआ. हर बार तो यह शोभायात्रा भव्य होती थी, लेकिन इस बार चीनी अधिकारियों की गैर मौजूदगी ने सबका ध्यान खींचा. 7 मार्च को, जनरल के दुभाषिए ने फिर तारीख मांगी, और मैंने 10 मार्च तय की. 9 मार्च को, चीनी अधिकारियों ने मेरे अंगरक्षक कमांडर, कुसुंग देपोन, को बुलाया और असामान्य आदेश दिया: मेरे साथ कोई सशस्त्र गार्ड नहीं होगा, और स्टोन ब्रिज से आगे कोई तिब्बती सैनिक नहीं जाएगा. इस गोपनीयता की मांग ने संदेह को और बढ़ाया. 9 मार्च की रात, अफवाह फैली कि चीनी मुझे अपहरण करने की योजना बना रहे हैं.
पूर्वी प्रांतों में लगातार हो रही थी लामाओं की हत्या
पेकिंग (बीजिंग) में मेरे आने की बिना सहमति की घोषणा और पूर्वी प्रांतों में लामाओं की हत्या की कहानियों ने लोगों का डर बढ़ाया. 10 मार्च की सुबह, 30,000 लोग नोरबुलिंग्का को घेरकर चीनी शासन के खिलाफ नारे लगा रहे थे. भीड़ बेकाबू थी. एक मंत्री पर पत्थरबाजी और एक मठवासी अधिकारी की हत्या ने स्थिति को और तनावपूर्ण बना दिया. मैंने जनरल को सूचित किया कि मैं प्रदर्शन में नहीं जा सकता. मेरे कैबिनेट ने भीड़ को आश्वासन दिया कि मैं चीनी शिविर नहीं जाऊंगा. जनरल तान ने गुस्से में तिब्बती सरकार पर आंदोलन भड़काने का आरोप लगाया और कठोर कार्रवाई की धमकी दी. अब मैं दो ज्वालामुखियों के बीच था – मेरे लोगों का गुस्सा और चीनी सेना की ताकत. दलाई लामा लिखते हैं कि ‘शांति की मेरी कोशिशें एक अनिश्चित भविष्य की ओर ले जा रही थीं. किसी को नहीं पता था क्या होने वाला है.’
ल्हासा में तनावपूर्ण स्थिति
किताब इस पूरे प्रकरण को बड़े ही सिलसिलेवार ढंग से पेश करती है और 1959 के उसी दौर में ले जाती है. दलाई लामा ने हर घटना को बहुत बारीकी से सामने रखते हुए स्थितियों को पेश किया है.
वह किताब में लिखते हैं कि, ल्हासा में स्थिति बेहद तनावपूर्ण हो चुकी थी. एक जनरल ने घोषणा की, “अब समय आ गया है कि इन सभी प्रतिक्रियावादियों को नष्ट कर दिया जाए…. हमारी सरकार अब तक सहनशील रही है, लेकिन यह विद्रोह है और हम अब हम कार्रवाई करेंगे, इसलिए तैयार रहें.” ये शब्द मेरे मंत्रियों के लिए एक अल्टीमेटम जैसे थे, जिससे उन्हें डर था कि यदि जनता का आंदोलन तुरंत बंद न हुआ, तो चीनी सेना सैन्य कार्रवाई करेगी. मेरे मंत्रियों को मेरी सुरक्षा की चिंता थी. वे मानते थे कि यदि मुझे कुछ हुआ, तो “तिब्बत का कुछ भी नहीं बचेगा.”
दलाई लामा के महल पर थी गोले बरसाने की तैयारी
बाद में उसी शाम, जनरल तान कुआन-सेन का एक पत्र दलाई लामा को मिला. यह अगले कुछ दिनों में उनके तीन पत्रों में से पहला था. दलाई लामा ने लिखा कि मैंने सभी का जवाब दिया. चीनी ने बाद में इन पत्रों को प्रचार के लिए प्रकाशित किया, यह दावा करते हुए कि मैं उनकी सुरक्षा में जाना चाहता था, लेकिन “अतिवादी गुट” ने मुझे नोर्बुलिंगका में बंधक बनाया और भारत ले गया. यह पूरी तरह असत्य था.
दलाई लामा लिखते हैं कि मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि “जब मैंने ल्हासा छोड़ा, मैंने अपनी मर्जी से ऐसा किया. यह निर्णय मेरा था, जो एक हताश स्थिति में लिया गया. मैं अपने लोगों द्वारा अपहृत नहीं था; मुझ पर कोई दबाव नहीं था, सिवाय इसके कि ल्हासा में हर तिब्बती देख सकता था कि चीनी मेरे महल पर गोले बरसाने की तैयारी कर रहे थे, और यदि मैं रुका तो मेरी जान खतरे में थी.
झील का संकेत, माला की पहचान और 13वें लामा के शव की दिशा… कैसे खोजे गए थे वर्तमान दलाई लामा?
17 मार्च को बरसाए गए मोर्टार
16 मार्च को जनरल का तीसरा पत्र और न्गाबो का एक पत्र मिला. न्गाबो ने चेतावनी दी कि “शांति की बहुत कम संभावना है” और मुझे लोगों के नेताओं से संबंध तोड़ने को कहा. उन्होंने लिखा, “अगर आप कुछ विश्वसनीय अंगरक्षकों के साथ भीतरी दीवार के अंदर रहें और जनरल तान को बताएं कि आप किस भवन में हैं, तो वे निश्चित रूप से उस भवन को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.” इससे पता चला कि चीनी महल और भीड़ को नष्ट करने की योजना बना रहे थे, लेकिन मुझे बचाना चाहते थे.
16 मार्च की रात, चीनी तोपों और सैन्य तैयारियों की खबरें आने लगीं. लोगों में दहशत फैल गई, लेकिन वे महल छोड़ने को तैयार नहीं थे. 17 मार्च को दो मोर्टार शॉट्स की आवाज़ ने स्थिति को और भयावह बना दिया. मैंने और मंत्रिमंडल ने फैसला किया कि मुझे तुरंत ल्हासा छोड़ना होगा.
…आखिर दलाई लामा ने छोड़ दिया तिब्बत
दलाई लामा लिखते हैं कि, ‘मैंने कहा, “मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है. मेरी धार्मिक शिक्षा ने मुझे इस शरीर को छोड़ने की ताकत दी है, लेकिन मेरे लोग और अधिकारी मेरे विचारों को साझा नहीं करते. उनके लिए दलाई लामा तिब्बत और तिब्बती जीवन का प्रतीक है.” उनकी चिंता ही मेरे निर्णय का आधार बनी. हमने गुप्त रूप से पलायन की योजना बनाई. मैंने सैनिक की वेशभूषा पहनी और रात 10 बजे नोर्बुलिंगका छोड़ दिया. मैंने अपने प्रिय बगीचे को अलविदा कहा, जहां शांति थी, लेकिन बाहर तनाव चरम पर था. मैंने चुपके से नदी पार की, जहां घोड़े और एस्कॉर्ट तैयार थे. मेरे साथ मंत्रिमंडल, परिवार और अंगरक्षक थे. हमने कोई सामान नहीं लिया, सिवाय कुछ कपड़ों और मुहरों के. मैंने लोगों लिए पत्र छोड़े जिसमें कहा, “जब तक हमला न हो, गोली न चलाएं.” इस तरह, मैंने तिब्बत छोड़ा, ताकि रक्

