
वहीं इस बार परशुराम जयंती बुधवार, 30 अप्रैल 2-25 को मनाई जाएगी. भगवान परशुराम एक ऐसे देवता हैं जिन्हें क्रोध बहुत ही जल्दी आता है. कहते हैं कि भगवान परशुराम ने क्रोध में आकर 21 बार क्षत्रियों का संहार किया था. लेकिन सवाल यह उठता है कि भगवान परशुराम को ऐसा क्यों करना पड़ा आखिर इसके पीछे की वजह क्या थी.


कैसे मिला परशुराम नाम?
पुराणों के अनुसार, परशुराम का मूल नाम राम था, लेकिन जब भगवान शिव ने उन्हें अपना परशु नामक अस्त्र प्रदान किया शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण वे परशुराम कहलाए.
21 बार क्षत्रियों के संहार की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार भवगान विष्णु ने परशुराम के रूप में छठवां अवतार, मदांध सहस्त्रबाहु को सबक सिखाने के लिए लिया था. महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के है. इस वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे. सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था. उन्होने भगवान दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की. दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से 10000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया. इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा. इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है. कहते है कि माहिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में इतना चूर हो गया कि उसने धर्म की सभी सीमाओं को लांघ दिया. उसके अत्याचार व अनाचार से पूरा जन सामान्य परेशान हो चुका था. वह इतना घमंड में चूर हो गया था कि उसने वेदपुराण और धार्मिक ग्रंथों को तक नहीं छोड़ा. उन्हें गलत बताकर ब्राह्मण का अपमान करता ऋषियों के आश्रम को नष्ट कर उनका वध कर देता था. उसका अत्याचार इतना बढ़ गया कि वह अपनी खुशी और मनोरंजन के लिए अबला स्त्रियों को उठा कर उनका सतीत्व खत्म करने लगा.
सहस्त्रार्जुन का बढ़ने लगा लालच
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाडजंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा. महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी. महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही देर में देखते ही देखते पूरी सेना के लिए भोजन का प्रबंध कर दिया. कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा. उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी. उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु की मांग की. ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया. इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा. तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई.
भगवान परशुराम ने किया सहस्त्रार्जुन का वध
जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई. परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर क्रोधित हो गए. पराक्रमी परशुराम ने उसी समय दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया. परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे. जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ. किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ. भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ को परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया.
ऐसे हुआ 21 बार क्षत्रियों का संहार
सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए. तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्नि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया. सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला. माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा. जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे.
यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह जब तक उस वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहीन कर देंगे. पुराणों के अनुसार उन्होंने इस वचन को पूरा भी किया था. भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पांच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया. कहा जाता है कि महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका. तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया किया और उनके आज्ञा के अनुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ भी किया.
