फोटोकॉपी पत्रकार – लोकतंत्र के नकली चौथे स्तंभ” (रूद्रपुर की पत्रकारिता पर एक करारा व्यंग्य)

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उत्तराखंड कभी प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था। लेकिन आज रूद्रपुर की धरती पर पत्रकारिता की एक नई जात उभर आई है – फोटोकॉपी पत्रकार। ये न कोई विचार रखते हैं, न विवेक। इनकी पहचान है – नेताओं की प्रेस विज्ञप्ति की फोटोस्टेट कॉपी और बिना बदलाव के अखबार में ठोक देना। और जब इन्हें कोई पूछे कि भाई पत्रकारिता में निष्पक्षता कहाँ है, तो ये सीना ठोककर कहते हैं – “ना पक्ष, ना विपक्ष, हम हैं निपट निष्पक्ष!”


फोटोस्टेट पत्रकार का परिचय

फोटोस्टेट पत्रकार कोई एक व्यक्ति नहीं है, ये एक मानसिकता है। एक ऐसी विचारधारा, जो मानती है कि पत्रकार का काम केवल नेता की रोटियां सेकने में घी डालना है। इन्हें न ग्राउंड रिपोर्टिंग करनी होती है, न जनता के मुद्दे उठाने होते हैं। इनका काम है –

“नेटाजी बोले, हमने छापा। नेता जी मुस्कुराए, हमने स्टेटस लगाया।”

इनके लिए खबर वही होती है जो व्हाट्सएप पर पहले से मिली हो। अगर किसी ने प्रेस रिलीज में लिखा कि “माननीय विधायक जी ने सड़क का उद्घाटन किया” – तो बस वो पूरा का पूरा छप जाता है। न ये जांचेंगे कि सड़क बनी या नहीं, न ये देखेंगे कि उद्घाटन फोटो में जो फीता काटा गया वो असल में कहां था।

इनकी पत्रकारिता का पवित्र त्रिकाल मंत्र

  1. फोटो – कोई भी नेता जी के साथ खिंचवाई गई फोटो होनी चाहिए। उसमें चाहे ये पीछे दरवाज़े पर खड़े हों, लेकिन फोटो में होना जरूरी है।
  2. स्टेटमेंट – जो नेता बोले, वो ही भगवान की वाणी है।
  3. प्रेस रिलीज – उसे ज्यों का त्यों छापना। एडिट करना गुनाह है, और सवाल उठाना देशद्रोह।

नेताओं के लिए ‘भाई’ और जनता के लिए ‘गूंगे’

इनका असली काम प्रेस नहीं, ‘भाईगिरी’ करना है। हर नेता को भाई बोलना, हर पार्टी को “सपोर्ट” देना, और बदले में किसी विज्ञापन या खाने के पैकेट की उम्मीद रखना।

जब कोई सामाजिक कार्यकर्ता किसी जनसमस्या को उठाता है, तो ये पत्रकार उसे ‘नेगेटिविटी फैलाने वाला’ कहकर टाल देते हैं। लेकिन वही नेता अगर फेसबुक पर शेर लिख दे – “हम बदलेंगे समय को” – तो ये फोटोकॉपी पत्रकार उस पर ‘नेता जी का दूरदर्शी बयान’ की हेडलाइन ठोक देते हैं।


बुद्धिजीवियों की नज़र में मज़ाक

शहर का पढ़ा-लिखा तबका इनकी रिपोर्टिंग को देखता है और बस मुस्कुरा देता है। सबको पता है कि किस अखबार में नेता जी का एड आया, किसने कौन सी दुकान से काजू-बर्फी भेजी, और किसकी खबर छपी। ये पत्रकारों की नहीं, एड एजेंट्स की प्रेस रिलीज पार्टी बन चुकी है।

इनके पास सड़क पर गिरा आदमी, स्कूल में बैठे बिना शिक्षक, अस्पताल में बगैर दवाई, या किसानों की फसल की रिपोर्ट नहीं होती। इनके पास होता है –

  • नेता जी का ‘ट्री प्लांटेशन’
  • पार्षद का ‘भाषण’
  • मंत्री का ‘कोटेशन’

और उस पर हेडलाइन –

“समाज बदल रहा है, नेता जी की सोच से”


भाषा और शैली – काव्य से कम नहीं

फोटोकॉपी पत्रकार अपने लेखों में इतनी मिठास घोलते हैं कि लगता है जैसे वे किसी विज्ञापन एजेंसी में काम कर रहे हों। हर खबर में “माननीय”, “यशस्वी”, “विकास पुरुष”, “वटवृक्ष” जैसे शब्द होते हैं।

मानो ये खबर न हो, नेता जी का विवाह प्रस्ताव पत्र हो।


झूठी निष्पक्षता का चोला

जब कभी इनसे कोई पत्रकारिता का असली काम करने को कहे – जैसे कि घोटाले की जांच, शिक्षा व्यवस्था पर सवाल, या अस्पताल की हालत दिखाना – तो ये कह देते हैं:

“हम निष्पक्ष हैं। हमें किसी से मतलब नहीं।”

दरअसल इनकी निष्पक्षता सिर्फ इतनी है कि जो बोले, उसे छाप दो – बिना टोकाटाकी। इन्हें किसी से मतलब नहीं क्योंकि इन्हें कुछ पता ही नहीं।


टीआरपी के लिए विवाद की खबरें

इनके लिए असली मसाला है –

  • लड़की भाग गई
  • मजार टूटी
  • हिंदू-मुस्लिम भिड़ गए
  • सड़क हादसा, खून, चीखें

इन खबरों से इन्हें टीआरपी, व्यूज़ और एड मिल जाते हैं। लेकिन शिक्षा, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, बुजुर्गों की पेंशन जैसे मुद्दे इनकी डिक्शनरी में नहीं हैं।


जनता का सवाल – पत्रकार हो या पोस्टर बॉय?

अब सवाल जनता का है –

क्या ऐसे लोग पत्रकार हैं या नेताओं के पोस्टर बॉय?

क्या लोकतंत्र को ऐसे छपाऊ, चाटुकार, और फोटोबाज़ पत्रकार चाहिए?

क्या प्रेस का मतलब केवल प्रेस रिलीज छापना और नेता जी को “विकास का मसीहा” बताना ही रह गया है?


उपसंहार – नया युग आएगा?

बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, छात्रों, और युवाओं को चाहिए कि ऐसे फोटोकॉपी पत्रकारों से सवाल पूछें। सोशल मीडिया पर इनकी नकली पत्रकारिता को उजागर करें, और असली पत्रकारों को सपोर्ट करें जो जनता की बात करते हैं, ज़मीन पर जाते हैं, और सत्ता से सवाल पूछते हैं।

अगर लोकतंत्र को बचाना है, तो पहले पत्रकारिता को बचाना होगा – और फोटोकॉपी पत्रकारिता को एक्सपोज करना होगा।



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