संपादकीय: पंचायत चुनावों में देरी के पीछे की सियासत और जनता का लोकतांत्रिक हक ✍️ अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संवाददाता – हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स / शैल ग्लोबल टाइम्स

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उत्तराखंड में पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल दिसंबर 2024 में ही पूरा हो गया था। फिर भी, आज छह माह बाद तक भी चुनाव नहीं हो सके हैं। अब राज्य सरकार ने एक बार फिर प्रशासकों का कार्यकाल 31 जुलाई 2025 तक बढ़ा दिया है। ऐसे में 52 दिनों के भीतर राज्य की 7,823 ग्राम पंचायतों, 3,157 क्षेत्र पंचायतों और 389 जिला पंचायत सीटों पर चुनाव कराना सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग दोनों के लिए एक बड़ी परीक्षा बन चुका है।

प्रशासनिक दृष्टि से देखें तो राज्य निर्वाचन आयोग की तैयारियां लगभग पूरी बताई जा रही हैं। वोटर लिस्ट का प्रकाशन हो चुका है, परिसीमन की प्रक्रिया भी संपन्न हो चुकी है और ग्राम पंचायतों की कुल संख्या अब 7,796 से बढ़कर 7,823 हो चुकी है। इस बदलाव में जहां कुछ क्षेत्र पंचायतें कम हुई हैं, वहीं नगर निकायों के विस्तार से कई ग्राम पंचायतें शहरी क्षेत्र में समाहित कर दी गई हैं। यह प्रक्रिया भले ही कानूनी तौर पर सही हो, लेकिन इसके पीछे की ‘राजनीतिक मंशा’ को लेकर ग्रामीण इलाकों में सवाल खड़े हो रहे हैं।

देरी के पीछे की राजनीति

पंचायत चुनावों में बार-बार की देरी यह संकेत देती है कि सत्ता पक्ष चुनावी स्थिति को अपने अनुकूल बनाने में जुटा हुआ है। यदि आयोग की तैयारियां पूरी हैं, तो फिर समय पर चुनाव क्यों नहीं हो रहे? क्या यह एक रणनीतिक देरी है ताकि प्रशासक तंत्र के जरिए सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करने का समय मिले?

लोकतंत्र में पंचायती राज संस्थाएं सत्ता का विकेन्द्रीकरण करती हैं। यह गांव की जनता को सीधा अधिकार देती हैं कि वे अपने प्रतिनिधि चुनें और विकास की दिशा तय करें। लेकिन जब इन संस्थाओं की जगह ‘प्रशासक’ तैनात कर दिए जाते हैं, तो यह व्यवस्था एक ‘ब्यूरोक्रेटिक तंत्र’ के हवाले हो जाती है, जिसकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं, बल्कि सरकार के प्रति होती है। इस प्रकार, पंचायतों के चुनाव न कराना लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा प्रहार है।

पंचायतों के लिए जरूरी है लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व

उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में जहां ग्राम सभाएं ही विकास की नींव हैं, वहां पंचायतों का निष्क्रिय या नाममात्र संचालन सीधे तौर पर ग्रामीण विकास को पंगु बना देता है। यह न केवल मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना, स्वच्छ भारत मिशन, जल जीवन मिशन जैसे कार्यक्रमों की गति को रोकता है, बल्कि स्थानीय समस्याओं का समाधान भी अधर में लटका रहता है।

वर्तमान में प्रशासकों को जो सीमित अवधि के लिए तैनात किया गया है, उससे यह साफ होता है कि सरकार पर चुनाव कराने का दबाव बढ़ रहा है। पर क्या 52 दिन पर्याप्त हैं? क्या आयोग को स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाएगा? और सबसे बड़ा सवाल – क्या गांव की जनता को उनके लोकतांत्रिक अधिकार समय पर मिलेंगे?

पंचायत चुनाव को प्राथमिकता बनाए सरकार

राज्य सरकार को अब इस मुद्दे पर राजनीति करने के बजाय गंभीरता से चुनाव की दिशा में आगे बढ़ना होगा। यदि सचमुच लोकतंत्र में विश्वास है तो पंचायत चुनावों को प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए। यह चुनाव कोई महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह उस नागरिक भागीदारी का प्रतीक है, जिस पर लोकतंत्र टिका हुआ है।

उत्तराखंड की जनता अब और इंतजार नहीं करना चाहती। पंचायतें जनता की हैं, न कि किसी प्रशासनिक ‘प्रयोगशाला’ का हिस्सा। यह समय है कि सरकार और आयोग दोनों 52 दिन नहीं, 52 घंटे में भी योजना बनाकर चुनाव की अधिसूचना जारी करें और लोकतंत्र को उसके असली रूप में बहाल करें।



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