
उत्तराखंड के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के लिए शनिवार को नामांकन प्रक्रिया समाप्त हो गई। हालांकि आखिरी दिन कुछ हलचल दिखी, लेकिन ग्राम पंचायत सदस्य पदों पर नामांकन की कमी ने पूरे लोकतांत्रिक परिदृश्य पर एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है।


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
राज्य निर्वाचन आयोग के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। प्रदेशभर में कुल 66,418 पदों के लिए शुरुआती तीन दिन में केवल 32,239 नामांकन हुए। ग्राम प्रधान के 7,499 पदों के लिए अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति रही, जहां तीन दिनों में ही 15,917 नामांकन दाखिल हुए और शनिवार को यह आंकड़ा और बढ़ा।
लेकिन सबसे बड़ी चिंता ग्राम पंचायत सदस्य पदों को लेकर है। कुल 55,587 सदस्य पदों के सापेक्ष महज 7,235 नामांकन ही तीन दिनों में जमा हो सके। शनिवार को भी इसमें कोई उल्लेखनीय इजाफा नहीं दिखा। इससे स्पष्ट है कि बड़ी संख्या में सदस्य पद रिक्त रहने की आशंका है।
यह स्थिति लोकतंत्र की बुनियाद को हिला देने वाली है। पंचायत व्यवस्था में सदस्य ही असली जनप्रतिनिधि होते हैं, जो गांव-गांव तक सरकार की योजनाएं, विकास कार्य और जनसुनवाई सुनिश्चित करते हैं। इन पदों में रुचि न लेना न केवल लोकतांत्रिक सहभागिता में गिरावट का संकेत है, बल्कि यह सामाजिक उदासीनता और ग्रामीण राजनीति में बढ़ती जटिलताओं को भी उजागर करता है।
इस गिरते उत्साह के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। एक ओर ग्राम पंचायत सदस्य पद पर कार्य करने में अधिक जिम्मेदारियां और सीमित अधिकार हैं। वहीं, पारिश्रमिक और सुविधाओं का अभाव भी लोगों को हतोत्साहित करता है। इसके अलावा, गांवों में बढ़ता पलायन, राजनीतिक गुटबाजी और स्थानीय स्तर पर जातिगत व सामाजिक खींचतान भी युवाओं और आम नागरिकों को चुनावी मैदान से दूर कर रही है।
राज्य निर्वाचन आयोग ने सात से नौ जुलाई के बीच नामांकन पत्रों की जांच का कार्यक्रम तय किया है। 10 और 11 जुलाई को नाम वापसी की प्रक्रिया होगी। पहले चरण के लिए चुनाव चिह्न का आवंटन 14 जुलाई को और मतदान 24 जुलाई को होगा। दूसरे चरण का चुनाव चिह्न आवंटन 18 जुलाई को होगा और मतदान 28 जुलाई को संपन्न होगा। दोनों चरणों की मतगणना 31 जुलाई को होगी।
चुनाव की यह पूरी प्रक्रिया भले ही समयबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही है, लेकिन सदस्य पदों पर नामांकन की कमी ने यह संकेत दे दिया है कि पंचायत व्यवस्था में सुधार की सख्त जरूरत है। सरकार को गंभीरता से इस बात पर विचार करना होगा कि ग्राम स्तर पर लोकतंत्र की भागीदारी को कैसे मजबूत किया जाए, ताकि पंचायत चुनाव केवल औपचारिकता बनकर न रह जाए।
यह वक्त है आत्ममंथन का। पंचायतें केवल लोकतंत्र की प्रयोगशाला नहीं, बल्कि विकास की असली नींव हैं। यदि लोग इन चुनावों से दूर होते जा रहे हैं, तो यह संकेत है कि कहीं न कहीं सिस्टम में भरोसे की कमी है। इस भरोसे को लौटाना ही अब सबसे बड़ी चुनौती है।

