संपादकीय विशेष: आतंक पर चुप्पी और देशद्रोही विमर्श – जब देश पर हमला हो और राजपरिवार के दामाद ‘समझ’ खोजने लगें! वोटबैंक की राजनीति का खतरनाक चेहरा लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, संपादक, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी प्रतिनिधि, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स

Spread the love

पहचान देखकर किसी की हत्या कर देना, यह प्रधानमंत्री के लिए संदेश है…,ये शब्द किसी आतंकी संगठन के मुखिया के नहीं हैं, बल्कि एक तथाकथित सभ्य समाज के सदस्य, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद और स्वयंभू उद्यमी रॉबर्ट वाड्रा के हैं। पुलवामा में हुए ई-स्लामिक आतंकियों के हमले के ठीक बाद दिए गए इस बयान से न केवल आतंक का समर्थन झलकता है, बल्कि यह उस देशद्रोही मानसिकता की तस्दीक करता है जिसमें आतंकियों के लिए सहानुभूति, और अपने देश की सेना और सरकार के लिए घृणा भरी हुई है।

क्या यह वही भारत है जिसकी मिट्टी से भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, और चंद्रशेखर आज़ाद निकले थे? आज उसी भारत में कुछ तथाकथित ‘लिबरल’ चेहरे आतंकियों की भाषा बोल रहे हैं। वाड्रा जैसे लोग जब यह कहते हैं कि “मुसलमान भारत में खुद को कमजोर महसूस कर रहे हैं”, तब यह सवाल उठता है — क्या यह देश के बहुसंख्यक समाज को गिल्ट-ट्रिप कराने की साजिश है? या आतंकियों के लिए एक वैचारिक कवच?

हमलावर कौन? कश्मीरियों पर हमला या भारत पर?राहुल गांधी, जिनसे राष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीर प्रतिक्रिया की अपेक्षा करना ही मूर्खता बन चुका है, उन्होंने भी इस आतंकी हमले को “कश्मीरियों पर हमला” बताकर एक बार फिर भ्रम फैलाने की कोशिश की है। ज़रा सोचिए, जब आतंकियों ने पुलवामा में निर्दोष हिन्दू यात्रियों को, उनकी पहचान पूछकर, गोली मारी — तब उसे “कश्मीरी पीड़ित” कहने का क्या अर्थ है?

क्या राहुल गांधी यह कहना चाहते हैं कि हत्यारे ‘पीड़ित’ हैं और मारे गए हिन्दू यात्री ‘संदिग्ध’? क्या यह कांग्रेस की नई नैतिकता है, जहां तुष्टीकरण के नाम पर बलिदान की गरिमा कुचल दी जाती है?

लिब्राण्डु, गैंग का राग: RD-X कहाँ से आया? आतंकी कैसे घुसे?

हर आतंकी हमले के बाद कुछ स्वघोषित बुद्धिजीवी सामने आते हैं — और उनका एजेंडा साफ होता है:

  • सेना को कटघरे में खड़ा करना
  • सरकार पर सवाल खड़ा करना
  • और आतंकियों की “पृष्ठभूमि समझने” का ढोंग करना।

इन लोगों से कोई नहीं पूछता कि जब उनकी थ्योरी के मुताबिक भारत में मुसलमान डरे हुए हैं, तो इस डर की परिणति निर्दोषों की हत्या में क्यों होती है? और जो डर के नाम पर गोली चलाते हैं, क्या वे सहानुभूति के पात्र हैं?ये वही विचारधारा है जो बुरहान वानी को “आतंकी नहीं, एक बेटा” कहती है। जो अफजल गुरु को “गलत फांसी” कहती है। जो हाफिज़ सईद की भाषा को “कश्मीरी जनभावना” बताती है।

वोटबैंक की राजनीति का खतरनाक चेहरा,रॉबर्ट वाड्रा और राहुल गांधी जैसे नेताओं की बयानबाजी बताती है कि भारत की राजनीति का एक वर्ग अब भी वोटबैंक तुष्टीकरण के दलदल में डूबा है। इनका हर वक्तव्य भारत विरोधी मानसिकता को खाद-पानी देता है।

जब ऐसे वक्त में देश को एकता की जरूरत होती है, तब ये लोग भारतवासियों में फूट डालने का प्रयास करते हैं — “संघी बनाम मुस्लिम”, “हिंदू बनाम कश्मीरी”, “राष्ट्रवादी बनाम प्रगतिशील” — ये सब सिर्फ एक एजेंडे के तहत किया जा रहा है:
भारत को भीतर से तोड़ना।

अब सवाल उठता है: क्या ये लोग देश के साथ हैं या दुश्मनों के साथ?

जब आतंकवादी गोलियां बरसाते हैं, और इस पर वाड्रा जैसे लोग “PM को संदेश” बताते हैं, तो यह देश के प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि पूरे भारत के नागरिकों के लिए अपमान है। यह एक तरह का वैचारिक आतंकवाद है — जिसमें AK-47 नहीं, माइक्रोफोन चलता है

कश्मीर की धरती पर ई-स्लामिक जेहाद के नाम पर जब निर्दोष हिन्दुओं की हत्या होती है, तब यह ‘समाजशास्त्र’ का विषय नहीं होता — यह राष्ट्र की आत्मा पर हमला होता है।

शर्मनाक चुप्पी और चुनिंदा आंसू

  • क्या आपको याद है, कितने लिब्रल्स ने उदयपुर के कन्हैयालाल की हत्या पर मोमबत्तियां जलाई थीं?
  • क्या कभी JNU में आतंकी पीड़ितों के लिए नारे लगे?
  • क्या वाड्रा ने कभी ISIS या लश्कर के लिए एक शब्द निंदा किया?

नहीं! क्योंकि इन लोगों के लिए आतंकवाद “धर्म” देख कर परिभाषित होता है।

देश को चाहिए वैचारिक स्पष्टता, सहानुभूति नहीं!

आतंकियों के लिए सहानुभूति दिखाने वाले किसी भी व्यक्ति, संस्था, या विचारधारा को स्पष्ट शब्दों में देशद्रोही करार दिया जाना चाहिए। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि कोई आतंकी गतिविधियों का समर्थन करे।

देश को नई वैचारिक स्पष्टता की जरूरत है:

  • जहाँ ‘राष्ट्र प्रथम’ हो, ‘वोटबैंक नहीं’।
  • जहाँ ‘सहानुभूति शहीदों के परिवारों’ से हो, आतंकियों से नहीं।
  • जहाँ ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ राष्ट्र की गरिमा के विरुद्ध नहीं हो।

अंत में — एक चेतावनी और आग्रह

रॉबर्ट वाड्रा जैसे लोग देश की चेतना को बीमार करने वाले वायरस हैं। ऐसे लोगों को सत्ता की देहलीज़ पर खड़ा होने का कोई नैतिक अधिकार नहीं होना चाहिए

समाज को इन बयानों के खिलाफ मुखर होना होगा — सोशल मीडिया पर, अखबारों में, और संसद में। क्योंकि जो आतंक को “संदेश” मानते हैं, वे खुद एक दिन राष्ट्र को खतरे में डाल सकते हैं।

यह समय निंदा का नहीं, निर्णायक संघर्ष का है — वैचारिक आतंकवाद के खिलाफ।



Spread the love