13 जून 2025 को इज़राइल द्वारा ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर किए गए हमलों के बाद पश्चिम एशिया में तनाव ने खतरनाक मोड़ ले लिया है। इसके जवाब में अमेरिका ने भी 21 जून को ईरान के परमाणु केंद्रों पर हमला कर दिया, जिससे परमाणु युद्ध की आशंका और वैश्विक ऊर्जा संकट की चिंता गहरा गई है।

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अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम तेज़ करेगा? क्या यह संघर्ष एक प्रॉक्सी वॉर में बदल जाएगा? और क्या भारत, चीन और यूरोप जैसे देश इस संकट की सबसे बड़ी आर्थिक कीमत चुकाएंगे? इस बारे में एस.एम.जैन कॉलेज के डिफेंस स्टडीज विभाग के प्रमुख गौरव पांडेय से बात की।

क्या अब ईरान अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को तेज़ी से आगे बढ़ाएगा? क्या इज़राइल या अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे रोक पाएंगे?

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट

13 जून 2025 के बाद इज़राइल द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों और सैन्य अड्डों पर किए गए हमलों के बाद ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम के तेज़ी से बढ़ने की आशंका काफी बढ़ गई है। तेहरान के कट्टरपंथी नेताओं का मानना है कि अब सिर्फ परमाणु हथियार ही ईरानी हुकूमत की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं, खासकर जब अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ बातचीत पूरी तरह ठप हो चुकी है।

इसके बाद अमेरिका ने भी 21 जून को फोर्दो, नतांज़ और इस्फहान स्थित ईरान के तीन परमाणु केंद्रों पर सीधा हमला किया, जिससे तनाव चरम पर पहुंच गया। ईरानी सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली ख़ामेनेई ने चेतावनी दी कि यदि अमेरिका ने दोबारा हमला किया, तो इसका “अपूरणीय नुकसान” होगा। ईरानी विदेश मंत्रालय ने कहा, “अमेरिका की किसी भी दखलअंदाजी से पूरे क्षेत्र में युद्ध छिड़ सकता है।”

अब वैश्विक स्तर पर इसे रोकना बेहद मुश्किल हो गया है। सैन्य हमलों से ईरान की क्षमता को अस्थायी तौर पर तो रोका जा सकता है, लेकिन उसकी बुनियादी क्षमता बनी रहेगी। रूस और चीन जैसे देश पश्चिमी सैन्य कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं, जिससे एकजुट वैश्विक दबाव की संभावना भी क्षीण हो गई है। अगर सैन्य ताकत और कूटनीति का संतुलन नहीं बना, तो ईरान खुले तौर पर परमाणु हथियार विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ सकता है।

अगर ईरान हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य को बंद करता है, तो वैश्विक तेल और गैस आपूर्ति, कीमतों और मुद्रास्फीति पर क्या असर होगा?

अगर ईरान हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य को बंद करता है। जहां से दुनिया का लगभग 20% कच्चा तेल और 30% एलएनजी (तरलीकृत प्राकृतिक गैस) गुजरती है तो इसका तत्काल असर पूरी दुनिया पर होगा। कच्चे तेल की कीमतें तेजी से बढ़कर $120-150 प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं, और यदि बंदी लंबी चली तो यह $200 प्रति बैरल तक जा सकती है।

एशिया और यूरोप, जो कतर की गैस पर निर्भर हैं, सबसे पहले गैस संकट झेलेंगे। इससे वैश्विक महंगाई में एक और लहर आएगी। ईंधन, ट्रांसपोर्ट और खाने-पीने की चीजें महंगी होंगी। दुनिया भर के सेंट्रल बैंक ब्याज दरों की समीक्षा करेंगे और कई विकासशील देशों में पूंजी पलायन और मुद्रा संकट पैदा हो सकता है।

दीर्घकाल में, ऊर्जा व्यापार का नक्शा बदल जाएगा। अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की सप्लाई पर ज़ोर बढ़ेगा और नवीकरणीय ऊर्जा व परमाणु ऊर्जा में निवेश तेजी से बढ़ेगा। अमेरिकी और सहयोगी सेनाएं जलडमरूमध्य को खोलने की कोशिश करेंगी, जिससे स्थायी सैन्य खर्च बढ़ेगा।

इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित होंगे यूरोप, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएं। अमेरिका भी कीमतों से प्रभावित होगा, लेकिन घरेलू उत्पादन के कारण उसे कुछ राहत मिलेगी। यह 1973 के तेल संकट के बाद का सबसे गंभीर ऊर्जा संकट साबित हो सकता है।

क्या यह टकराव हिज़्बुल्लाह, हूती और शिया लड़ाकों के जरिए प्रॉक्सी वॉर में बदल सकता है?

13 जून के बाद इज़राइल द्वारा ईरान पर सीधे हमले के बाद पश्चिम एशिया में प्रॉक्सी युद्ध का खतरा तेजी से बढ़ गया है। ईरान समर्थित हिज़्बुल्लाह अपने रॉकेट और ड्रोन के ज़रिए इज़राइल पर सीमित हमले कर सकता है। वहीं यमन के हूती विद्रोहियों ने पहले ही रेड सी में अमेरिकी और इज़राइली ठिकानों को निशाना बनाने की धमकी दी है।

इराक और सीरिया में मौजूद ईरान समर्थित शिया मिलिशिया भी अमेरिकी ठिकानों और सहयोगी देशों पर हमले तेज कर सकते हैं। अगर ये सभी प्रॉक्सी समूह सक्रिय हो गए तो पूरा क्षेत्र एक बहु-आयामी युद्ध की ओर बढ़ सकता है, जिससे इज़राइल और अमेरिका की सैन्य ताकत बुरी तरह खिंच जाएगी।

इससे लेबनान, यमन, इराक और सीरिया में अस्थिरता बढ़ेगी, रेड सी और खाड़ी के व्यापार मार्ग बाधित होंगे और वैश्विक ऊर्जा कीमतों के साथ मानवीय संकट भी पैदा हो सकता है। रूस और चीन की पश्चिमी कार्रवाई के विरोध के चलते अंतरराष्ट्रीय समाधान मुश्किल हो जाएगा। अगर कूटनीति ने हस्तक्षेप नहीं किया, तो यह संघर्ष पूरे पश्चिम एशिया को हिला सकता है।

क्या अमेरिका और उसके सहयोगी प्रत्यक्ष युद्ध में शामिल हुए बिना क्षेत्रीय सुरक्षा और वैश्विक समुद्री हितों की रक्षा कर सकते हैं?

21 जून को अमेरिका द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी सीधे युद्ध में कूदे बिना स्थिति संभालने की कोशिश कर रहे हैं। अमेरिका ने अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ाई है-B-2 बमवर्षक गुआम में, विमानवाहक पोत खाड़ी और भूमध्य सागर में, और मिसाइल रक्षा प्रणाली इज़राइल में तैनात की गई है।

अमेरिका “Prosperity Guardian” जैसी समुद्री सुरक्षा योजनाओं और इंटरनेशनल मेरीटाइम सिक्योरिटी कंस्ट्रक्ट के तहत जलमार्गों की सुरक्षा कर रहा है ताकि ईरान समर्थित हमलों को रोका जा सके। इस रणनीति का मूल उद्देश्य “एकीकृत प्रतिरोध” (Integrated Deterrence) है यानी सैन्य मौजूदगी तो दिखे लेकिन जमीन पर युद्ध से बचा जाए।

इसके साथ ही बैक-चैनल कूटनीति और सहयोगी देशों से समन्वय भी जारी है। लेकिन ईरान के खुले धमकियों और रूस-चीन के विरोध के चलते यह रणनीति भी खतरे में पड़ सकती है। अमेरिका को संतुलित रणनीति, मजबूत उपस्थिति और कूटनीतिक रास्ते को जारी रखना होगा, ताकि वह प्रत्यक्ष युद्ध से बचते हुए प्रभावी जवाब दे सके।

क्या भारत, चीन और यूरोपीय देश इस संकट से आर्थिक रूप से अधिक प्रभावित होंगे?

भारत, चीन और यूरोपीय देश, जो ऊर्जा आयात पर अत्यधिक निर्भर हैं, इस संकट से सबसे ज्यादा आर्थिक झटका झेलेंगे। हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य में अवरोध पैदा होने पर, दुनिया के 20-30% तेल और गैस की आपूर्ति बाधित होगी, जिससे कीमतें आसमान छू सकती हैं।

भारत, जो अपना 50-60% तेल इसी मार्ग से मंगाता है, को भारी आयात खर्च, महंगाई, रुपये पर दबाव, और निर्यात पर असर झेलना पड़ेगा। चीन, जो खाड़ी देशों से 45% तक तेल लाता है, उसके लिए ऊर्जा भंडार पर दबाव बढ़ेगा और विकास दर प्रभावित हो सकती है।

यूरोप, जो रूस के बाद खाड़ी गैस पर अधिक निर्भर हो गया है, को सप्लाई चेन संकट, महंगाई और औद्योगिक क्षेत्र में झटका लगेगा। इन सभी क्षेत्रों में केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा सकते हैं, शेयर बाजार अस्थिर हो सकते हैं और उपभोक्ता की क्रयशक्ति घट सकती है।

यदि स्थिति जल्दी नहीं सुधरी, तो ये देश गंभीर आर्थिक संकट की ओर बढ़ सकते हैं और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।


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