कमर के झटकों से तय होगा उत्तराखंड का भविष्य? सपना चौधरी का चुनावी मंच और गंगवार परिवार की सियासी विरासत पर एक आलोचनात्मक संपादकीय लेखक: अवतार सिंह बिष्ट, विशेष संवाददाता, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स

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भव्य लाइटिंग, धमाकेदार डीजे, और मंच पर कमर मटकाती हरियाणा की मशहूर नृत्यांगना सपना चौधरी — यह कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि उधम सिंह नगर की भंगा जिला पंचायत सीट का चुनावी प्रचार था।

उत्तराखंड राज्य बनने के 25 साल बाद भी यदि जिला पंचायत सदस्य के चुनाव प्रचार में “नाच” को “विकास” के प्रतीक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, तो यह न केवल लोकतंत्र की क्षीण होती चेतना की निशानी है, बल्कि उस जनतंत्र की भी मौत है जिसे राज्य आंदोलनकारियों ने जान देकर गढ़ा था।


सपना चौधरी और उत्तराखंड की चुनावी दुर्दशा

हरियाणवी लोकगीतों और मंचीय अदाओं के लिए प्रसिद्ध सपना चौधरी के कार्यक्रम में हजारों की भीड़ जुटी। भीड़ ने सड़कों को पाट दिया, ट्रैफिक थम गया और प्रशासन हाथ पर हाथ रखे देखता रहा।

यह दृश्य बताता है कि क्षेत्रीय मुद्दों, जन-कल्याण योजनाओं, या स्थानीय विकास की तुलना में आज भीड़ जुटाने के लिए लोकनृत्य को अधिक प्रभावी मान लिया गया है।

लेकिन असल सवाल यह है — क्या सपना चौधरी के नृत्य पर थिरकती भीड़ का वोट भंगा की ज़मीन पर रह रहे आम आदमी की समस्याओं का हल करेगी?


गंगवार परिवार: एक पारिवारिक सत्ता केंद्र की कहानी

उधम सिंह नगर की ज़िला पंचायत राजनीति में गंगवार परिवार दशकों से प्रभावशाली रहा है। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से गंगवारों की राजनीतिक पकड़ न केवल कायम रही, बल्कि उन्होंने हर चुनाव में सत्ता समीकरणों को अपने हिसाब से मोड़ा।

आज जिस परिवार को कभी सत्ता का ‘सरताज’ कहा जाता था, वही सपना चौधरी जैसे बाहरी शो पीस से चुनावी समर में जान डालने की कोशिश कर रहा है — यह संकेत है उनके जनाधार के क्षीण होने का, और आत्म-मंथन का समय भी।

गंगवार परिवार पर यह सवाल भी उठता है कि इतने वर्षों के शासन में क्या उन्होंने भंगा, बिचुवा, किच्छा जैसे इलाकों में कोई स्थायी विकास किया?

या फिर सत्ता का उपयोग केवल पंचायत अध्यक्षी, ठेकेदारी, और पद-प्राप्ति तक सीमित रहा?


जिला पंचायत की राजनीति: विचार की नहीं, अब ‘विजुअल’ की लड़ाई?उत्तराखंड की पंचायती राजनीति आज विचारशून्यता के गर्त में जा गिरी है। जिला पंचायत जैसी संस्था, जो ग्राम विकास, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओं की संरचना करती है, वहां अब “कमर के लटके-झटकों” से प्रचार की बिसात बिछ रही है।

जब राजनीतिक परिवार सपना चौधरी जैसी कलाकारों को मंच पर उतारते हैं, तो वे जनता को यह स्वीकार कर चुके होते हैं कि “हमारे पास कहने को कुछ नहीं बचा, दिखाने को बहुत कुछ है।”


उत्तराखंड की संस्कृति पर संकट?इस तरह के आयोजनों से यह डर पैदा होता है कि पहाड़ों और तराई की सांस्कृतिक अस्मिता, जो लोकगीतों, भजनों, जागरों, और जनसंघर्षों से पनपी है, वह अब सस्ती लोकप्रियता और ग्लैमर की भेंट चढ़ेगी।

सवाल यह नहीं कि सपना चौधरी ने नाचा, सवाल यह है कि क्यों नाचा गया?

क्या अब उत्तराखंड में चुनाव जीतने का एकमात्र रास्ता भीड़ जुटाने और मनोरंजन कराने से होकर जाएगा?


क्या मतदाता अब भी जागेगा?

भंगा सीट पर अगर मतदाता सपना चौधरी के कार्यक्रम से प्रभावित होकर वोट देता है, तो यह केवल एक सीट की हार नहीं होगी — यह जनचेतना की पराजय होगी।

यह उस भविष्य का संकेत होगा जहां जनता विकास नहीं, मनोरंजन मांगती है; नीतियां नहीं, नर्तकियां चाहती है।


गंगवार परिवार को आत्ममंथन की आवश्यकता?गंगवार परिवार को यह समझना होगा कि राजनीतिक पूंजी केवल विरासत से नहीं, जनसेवा और जनसंवाद से अर्जित होती है।अगर वे सच में जनता के प्रतिनिधि बनना चाहते हैं, तो सपना चौधरी के बजाय क्षेत्र की सड़कों, नालियों, विद्यालयों, और अस्पतालों की हालत सुधारे।वरना आज सपना आई है, कल कोई और आएगा — लेकिन जनता का विश्वास नहीं लौटेगा।


क्या उत्तराखंड जैसे संघर्षशील राज्य की पंचायतें अब केवल ग्लैमर, शोर और नाच-गाने तक सिमट जाएंगी?क्या राज्य निर्माण के लिए जान गंवाने वाले आंदोलनकारियों के खून की कीमत महज एक टिकट और सपना चौधरी की प्रस्तुति रह गई है?

अगर नहीं — तो जागिए।भंगा से लेकर बाजपुर और किच्छा तक, हर मतदाता को यह तय करना है कि वह सपना देखेगा या फिर विकास करेगा।


यह संपादकीय केवल विचार आधारित विश्लेषण है और इसका उद्देश्य सार्वजनिक विमर्श को जागृत करना है। किसी भी व्यक्ति विशेष या परिवार के प्रति दुर्भावना नहीं रखता।



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