पाकिस्तान के हालात किसी से छिपे नहीं हैं. कंगाल हो चुका यह देश दुनिया में भीख के लिए कटोरा लेकर घूम रहा है. पाकिस्तान के विभिन्न इलाकों जैसे-बलूचिस्तान, सिंध, खैबर पख्तूनख्वा (केपीके), और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में उसी तरह की आग जलती दिख रही है जैसी 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)) में उठी थी.

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तब के भारतीय नेतृत्व ने जिस तरह उसका फायदा उठाया था, वैसा ही कुछ एक बार फिर भारत कर सकता है. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने से पहले की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों से अगर वर्तमान पाकिस्तान से तुलना की जाए तो काफी कुछ उस दौर की याद दिला रहा है. पहलगाम आतंकी हमला के बाद भारत-पाकिस्तान तनाव, विशेष रूप से भारत द्वारा सिंधु जल संधि को निलंबित करने के बाद पाकिस्तान में आंतरिक असंतोष चरम पर है. पाकिस्तान का आर्थिक संकट, कई क्षेत्रों में सैन्य दमन, कई समुदायों को हाशिए पर धकेलना, और तेज होते अलगाववादी आंदोलन पाकिस्तान की अस्थिरता को बढ़ा रहे हैं. पाकिस्तान में बढ़ता आंतरिक असंतोष ही बांग्लादेश बनने की प्रक्रिया की याद दिलाता है. जाहिर है कि यह भारत के लिए एक मौका है कि वह अपने दुश्मन को और कमजोर कर सके.

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

1971 में बांग्लादेश के जन्म का कारण

सबसे पहले हम देखते हैं कि वो कौन से कारण रहे जिसके चलते पूर्वी पाकिस्तान के लोग पाकिस्तान से अलग होकर एक अलग देश बांग्लादेश बनाने के लिए मजबूर हुए. दरअसल पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली मुस्लिम बहुसंख्यक थे. जो जातीय और सांस्कृतिक रूप से पाकिस्तान से अलग थे. पंजाबी-प्रभुत्व वाले पश्चिमी पाकिस्तानी अभिजात्य लोगों द्वारा बंगाली भाषियों का सांस्कृतिक दमन किया जा रहा था. उर्दू को राष्ट्रीय भाषा के रूप में थोपा गया, जिसने बंगाली को हाशिए पर धकेल दिया गया.

बुनियादी ढांचा और संसाधन पश्चिमी पाकिस्तान में केंद्रित थे. 1970 के चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान की अगुवाई वाली अवामी लीग ने बहुमत हासिल किया, लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा सत्ता हस्तांतरण से इनकार ने व्यापक विरोध प्रदर्शन शुरू हुए. पाकिस्तानी ऑर्मी ने ऑपरेशन सर्चलाइट (मार्च 1971) के बहाने क्रूर सैन्य कार्रवाइयां कीं. पाकिस्तानी सेना ने बंगाली समुदाय की सामूहिक हत्याएं की जिसके चलते गृहयुद्ध शुरू हो गया. लाखों शरणार्थियों ने भारत में शरण ली. भारत की कूटनीतिक और सैन्य हस्तक्षेप, जिसमें मुक्ति बाहिनी का समर्थन शामिल था, ने 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया.

पूर्वी पाकिस्तान में जो हालत 1971 में थे काफी कुछ वैसा ही कुछ इस समय पाकिस्तान के बलूचिस्तान, सिंध, केपीके, और पीओके में स्थितियां हैं.

2- बलूचिस्तान: उबलता अलगाववादी विद्रोह

बलूचिस्तान में जो चल रहा है काफी कुछ पूर्वी पाकिस्तान के 1971 जैसा ही है. बंगालियों की तरह, बलोच आर्थिक शोषण और जातीय असमानता का सामना कर रहे हैं. बलूचिस्तान के संसाधनों का दोहन होता है, जैसा कि पूर्वी पाकिस्तान की जूट संपदा के साथ हुआ था. अपने विशाल प्राकृतिक संसाधनों (गैस, खनिज) के बावजूद, बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे गरीब प्रांत है.

बलोच आंदोलनकारियों के साथ जो सैन्य दमन हुआ है वो ऑपरेशन सर्चलाइट की याद दिलाता है.कई हजार बलोच लोगों को गायब कर दिया गया जो 1971 के नरसंहार को याद दिलाती हैं. वॉयस फॉर बलोच मिसिंग पर्सन्स का अनुमान है कि 45,000 लोग गायब या मारे गए हैं. संघीय शासन में बलोच प्रतिनिधित्व की कमी में स्पष्ट है, जैसा कि अवामी लीग के बहिष्कार के साथ था.

बलोच लिबरेशन आर्मी (BLA) और अन्य समूहों ने पाकिस्तान के सरकार प्रतिष्ठानों विशेषकर पाकिस्तानी ऑर्मी पर हमलों को तेज कर दिया है. इनके हमले सुरक्षा बलों, बुनियादी ढांचे, और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) के तहत चीनी हितों को निशाना बनाया गया है. जफर एक्सप्रेस अपहरण (अप्रैल 2025) जब BLA उग्रवादियों ने एक ट्रेन से यात्रियों का अपहरण किया. CPEC परियोजनाओं पर हमले: 2024-2025 में एक दर्जन से अधिक हमलों ने चीनी श्रमिकों और परियोजनाओं, जैसे ग्वादर बंदरगाह, को निशाना बनाया, जो पाकिस्तान और चीन विरोधी भावनाओं को दर्शाता है.

बलोच लोग सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से पंजाबी-प्रभुत्व वाले राज्य द्वारा हाशिए पर महसूस करते हैं. बलोच भाषा और संस्कृति को राष्ट्रीय प्रवचन में कम प्रतिनिधित्व मिलता है.

2. सिंध: नहरों के विरोध में फिर से पनपता सिंधी राष्ट्रवाद

सिंध, जनसंख्या के आधार पर पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा प्रांत, सिंधी राष्ट्रवादी भावनाओं में उछाल देख रहा है. कराची और हैदराबाद में स्वायत्तता या अलगाव की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन हुए हैं.

पाकिस्तान के सिंध प्रांत में वकीलों द्वारा नहर परियोजना का विरोध ग्रीन पाकिस्तान इनिशिएटिव (GPI) के तहत प्रस्तावित 3.3 अरब डॉलर की लागत वाली छह नहरों के निर्माण के चलते वर्तमान में सिंधी समुदाय पाक सरकार से बेहद नाराज है. इस परियोजना का उद्देश्य दक्षिण पंजाब में 12 लाख एकड़ बंजर भूमि को सिंचित करना है, लेकिन सिंध में व्यापक विरोध के पीछे निम्नलिखित कई कारण हैं. सिंध प्रांत, जो सिंधु नदी पर निर्भर है, को डर है कि नहरें नदी के पानी को पंजाब की ओर मोड़ देंगी, जिससे सिंध के हिस्से का पानी कम हो जाएगा. सिंध की कृषि, विशेष रूप से चावल और कपास की खेती, सिंधु नदी पर निर्भर है, और पानी की कमी से अर्थव्यवस्था और आजीविका पर गंभीर असर पड़ेगा.

भारत द्वारा सिंधु जल संधि (IWT) को निलंबित करने (अप्रैल 2025) के बाद पहले से ही जल संकट गहरा गया है, जिसने सिंध में पानी की उपलब्धता को और अनिश्चित कर दिया.

सिंध में प्रदर्शनकारी वकीलों ने इन प्रोजक्ट के विरोध में आम जनजीवन को ठप कर दिया है. वकीलों का कहना है कि यह परियोजना पंजाब-केंद्रित है और सिंध की जरूरतों को नजरअंदाज करती है. सिंध सरकार और स्थानीय लोग इसे जनता-विरोधी नीति करार दे रहे हैं. सिंध के मुख्यमंत्री मुराद अली शाह और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) ने भी परियोजना को सिंध के हितों के खिलाफ बताया है.

सिंध कराची के बंदरगाह और उद्योगों के माध्यम से महत्वपूर्ण राजस्व उत्पन्न करता है, लेकिन उसे अपर्याप्त संघीय निवेश मिलता है. ग्रामीण सिंध गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रहा है. सिंधी भाषा और संस्कृति को उर्दू के पक्ष में हाशिए पर धकेल दिया जाता है, जो 1971 में बंगाली दमन की याद दिलाता है.

3. खैबर पख्तूनख्वा (केपीके): जातीय तनाव से खूंखार होता अलगाववाद

केपीके, विशेष रूप से जनजातीय क्षेत्र उग्रवाद और जातीय हिंसा से जूझ रहा है.2021 में अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से TTP (तहरीके तालिबान पाकिस्तान) के हमले बढ़े हैं, 2024 में 1,500 से अधिक मौतें हुईं. हाल के हमले सुरक्षा बलों और नागरिकों को निशाना बनाते हैं. इस्लामिक स्टेट-खोरासान (ISKP)ने शिया-विरोधी हिंसा को तेज किया, विशेष रूप से कुर्रम में, जहां 2024 से सांप्रदायिक झड़पों में 200 से अधिक लोग मारे गए. पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट (PTM) ने सैन्य अत्याचारों के लिए जवाबदेही और अतिरिक्त-न्यायिक हत्याओं को समाप्त करने की मांग करता है, जो पश्तूनों में समर्थन प्राप्त कर रहा है, लेकिन इसे राज्य की कार्रवाइयों का सामना करना पड़ रहा है.

दरअसल अफगानिस्तान की अस्थिरता ने TTP और ISKP को बढ़ावा दिया, जिसने पाकिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था पर दबाव डाला.पश्तून पंजाबी-प्रभुत्व वाले राज्य द्वारा उपेक्षित महसूस करते हैं, जिसमें केपीके में सीमित आर्थिक अवसर हैं.जरब-ए-अजब (2014) जैसे सैन्य अभियानों ने लाखों लोगों को विस्थापित किया, जिसके चलते सैना के खिलाफ नाराजगी बढी है.

4. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके): बढ़ता असंतोष

पीओके में कुछ सालों से पाकिस्तान के शासन और आर्थिक उपेक्षा के खिलाफ प्रदर्शन बढ़े हैं, कुछ लोग भारत के साथ एकीकरण की मांग कर रहे हैं. पिछले साल वहां महंगाई को लेकर जबरदस्त आंदोलन हुए थे. पीओके के लोगों का मानना है कि स्वायत्त दर्जा नाममात्र का है, इस्लामाबाद प्रमुख निर्णयों को नियंत्रित करता है. भारत द्वारा उरी बांध से पानी छोड़ने, सिंधु जल संधि के निलंबन के बाद, हट्टियन बाला में जल आपातकाल शुरू हुआ, जिसने निवासियों को विस्थापित किया और बाढ़ का डर पैदा हुआ है. पीओके में बुनियादी ढांचे और रोजगार के अवसरों की कमी है, संसाधन mainland पाकिस्तान को हस्तांतरित किए जाते हैं.

कुल मिलाकर देखा जाए तो पाकिस्तान इस समय बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है. भारत को बस एक धक्का लगाने की जरूरत है. पाकिस्तान के पक्ष में इस समय कोई नहीं है. चीन थोड़ा बहुत ही स्टैंड लेने वाला है. चीन नहीं चाहेगा कि अमेरिका और भारत दोनों से एक साथ पंगा ले लें. रूस और अमेरिका भारत के साथ ही रहने वाले हैं. भारत की आंतरिक स्थिति काफी मजबूत है. पाकिस्तान के मामले में विपक्ष बहुत संयमित भाषा बोल रहा है. यानी मौका भारत के मुफीद है. बस देखना यही है कि कहीं हम मौका न चूक जाएं.


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