वक्फ संशोधन एक्ट: न्याय की लड़ाई या अधिकारों का दुरुपयोग?

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संपादकीय लेख;वक्फ संशोधन एक्ट 2025 को लेकर देश में हंगामा मचा हुआ है। यह सवाल हर जुबान पर है कि क्या यह कानून वक्फ बोर्ड की बेलगाम मनमानी पर लगाम लगाने की जरूरत थी, या यह धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों पर एक और छुरा है? इस कानून ने न सिर्फ मुस्लिम समुदाय को सड़कों पर उतारा, बल्कि बौद्ध, सिख, ईसाई और एससी-एसटी समुदायों को भी एकजुट कर दिया। यह विरोध की सुनामी कोई साधारण लहर नहीं है—यह उस आक्रोश की चीख है जो तब उठती है जब गांव के गांव और शहर के शहर एक बोर्ड के लालच में निगल लिए जाएं। वरिष्ठ वकील महमूद प्राचा का बयान कि “80% न्याय सिर्फ प्रोटेस्ट से मिलता है,” इस जंग का नारा बन गया है। तो आखिर यह माजरा क्या है? चलिए, इस कहानी को खोलते हैं।वक्फ बोर्ड की लूट: संपत्ति या स्वाभिमान?वक्फ बोर्ड को धार्मिक और धर्मार्थ कार्यों के लिए संपत्तियों का रखवाला बनाया गया था, लेकिन यह रखवाला अब भक्षक बन बैठा है। बिहार के गोविंदपुर गांव में अगस्त 2024 को सुन्नी वक्फ बोर्ड ने पूरे गांव को ही अपनी जागीर घोषित कर दिया। सैकड़ों परिवारों की पुश्तैनी जमीन पर संकट मंडराने लगा। केरल के एर्नाकुलम में 600 ईसाई परिवारों की जमीन पर वक्फ का दावा ठोका गया, जिसके खिलाफ सितंबर 2024 से लोग सड़कों पर हैं। कर्नाटक के विजयपुरा में तो हद ही हो गई—15,000 एकड़ जमीन को वक्फ संपत्ति बताकर किसानों की जिंदगी छीनने की कोशिश हुई। यह कोई इक्का-दुक्का घटना नहीं, बल्कि एक सिलसिला है जिसने आम आदमी के हक और सम्मान को कुचल दिया। वक्फ बोर्ड ने न सिर्फ संपत्तियों का दुरुपयोग किया, बल्कि लोगों के विश्वास को भी ठेस पहुंचाई। क्या यह मनमानी नए कानून की वजह नहीं बनी?विरोध की सुनामी: समुदायों का अभूतपूर्व गठजोड़इस कानून के खिलाफ उठा विरोध सिर्फ एक समुदाय की नाराजगी नहीं है। बौद्ध मठों से लेकर सिख गुरुद्वारों तक, ईसाई चर्चों से लेकर एससी-एसटी बस्तियों तक—हर कोने से आवाजें गूंज रही हैं। यह एकजुटता बताती है कि वक्फ संशोधन एक्ट का दांव सिर्फ मुस्लिम संपत्तियों पर नहीं, बल्कि हर उस इंसान के हक पर है जो अपनी जमीन और पहचान बचाना चाहता है। महमूद प्राचा ने इस आग को और हवा दी जब उन्होंने कहा, “हम बौद्ध, सिख, ईसाई और एससी-एसटी भाइयों के साथ मिलकर इस कानून को वापस करवाएंगे।” उनका यह दावा कि “80% न्याय प्रोटेस्ट से मिलता है,” उस सच को उजागर करता है कि जब सत्ता सुनने को तैयार न हो, तो सड़क ही कोर्ट बन जाती है। यह विरोध न सिर्फ वक्फ बोर्ड की मनमानी के खिलाफ है, बल्कि उस कानून के खिलाफ भी है जो शायद जल्दबाजी में बनाया गया।नया कानून: इलाज या नई बीमारी?सरकार का कहना है कि वक्फ संशोधन एक्ट 2025 वक्फ बोर्ड के दुरुपयोग को रोकने और पारदर्शिता लाने के लिए जरूरी था। जिला कलेक्टर को सर्वे की ताकत, गैर-मुस्लिमों को बोर्ड में जगह, और महिलाओं की हिस्सेदारी—ये बदलाव गरीब मुस्लिमों के हक को मजबूत करने का वादा करते हैं। लेकिन क्या यह वाकई इतना सीधा है? विपक्ष और मुस्लिम संगठन इसे संविधान के खिलाफ मानते हैं, जो धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। उनका सवाल है—अगर पारदर्शिता ही मकसद था, तो सभी समुदायों से सलाह क्यों नहीं ली गई? क्या यह कानून वक्फ बोर्ड की मनमानी को रोकने का जरिया है, या किसी एक समुदाय को कठघरे में खड़ा करने की साजिश?संतुलन का रास्ता: न्याय सबके लिएवक्फ संशोधन एक्ट पर मचा बवाल यह साबित करता है कि हक और स्वतंत्रता के बीच की जंग आसान नहीं होती। वक्फ बोर्ड की मनमानी को रोकना जरूरी है, लेकिन यह भी सच है कि किसी समुदाय को अलग-थलग करना इसका हल नहीं। सरकार को चाहिए कि वह हर पक्ष की बात सुने, पारदर्शी तरीके अपनाए और ऐसा कानून बनाए जो सबके लिए न्याय लाए। महमूद प्राचा का कथन—”80% न्याय प्रोटेस्ट से मिलता है”—हमें बताता है कि जनता की ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह विरोध की सुनामी सरकार के लिए एक चेतावनी है कि बिना संतुलन और सहमति के कोई भी कानून लंबे वक्त तक टिक नहीं सकता। अब सवाल यह है—क्या सरकार इस सुनामी को सुनेगी, या इसे अनदेखा कर एक नई जंग को न्योता देगी?

शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता


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