ब्रज भूमि की बात होती है तो ‘राधे-राधे’ स्वाभाविक रूप से मन और वाणी पर आ जाता है. मथुरा, बरसाना, वृंदावन—हर जगह राधा रानी का नाम गूंजता है. लेकिन क्या आपने कभी गौर किया कि श्रीमद्भागवत, जो भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का सबसे पावन और प्रसिद्ध ग्रंथ है, उसमें राधा रानी का नाम कहीं नहीं है?

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आखिर क्यों? क्या यह किसी भूल का परिणाम है या फिर इसके पीछे कोई दिव्य रहस्य छिपा है?

हजारों वर्षों से संत, विद्वान और भक्त इस रहस्य को समझने का प्रयास कर रहे हैं. आइए जानते हैं कि क्यों शुकदेव जी महाराज ने श्रीमद्भागवत में राधा नाम का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं किया और इसके पीछे की आध्यात्मिक व्याख्या क्या है.

भागवत में राधा नाम क्यों नहीं?

श्रीमद्भागवत में 335 अध्याय, 18,000 श्लोक और 12 स्कंध हैं, लेकिन राधा नाम कहीं स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया. इसके पीछे मुख्य कारण शुकदेव मुनि की आत्मिक स्थिति और जिम्मेदारी थी. वे राजा परीक्षित को मोक्ष दिलाने के लिए श्रीमद्भागवत कथा सुनाने आए थे, और उन्हें केवल 7 दिन का समय मिला था.

पौराणिक मान्यता के अनुसार, शुकदेव जी ने स्वयं कहा था, जैसे ही राधा नाम मेरी जिह्वा पर आएगा, मैं समाधि में चला जाऊंगा. फिर कथा कौन सुनाएगा? इसलिए उन्होंने राधा नाम का प्रत्यक्ष उच्चारण नहीं किया, बल्कि प्रतीकों, भावों और उपनामों के माध्यम से राधा रानी की उपस्थिति को व्यक्त किया.

राधा रानी का अप्रत्यक्ष उल्लेख

हालांकि भागवत में राधा नाम नहीं है, लेकिन ‘श्री’, ‘रमा’, ‘गोपिका’, ‘श्यामा’, ‘किशोरी’ जैसे शब्दों से राधा रानी की उपस्थिति महसूस होती है. श्रीकृष्ण की रासलीला में जिन गोपिकाओं का वर्णन है, उनमें राधा रानी प्रमुख हैं. यह वर्णन गहराई से समझने वालों के लिए राधा की दिव्य उपस्थिति का संकेत देता है.

राधा रानी का दिव्य प्राकट्य

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, राधा रानी भगवान विष्णु के सौंदर्य और माधुर्य स्वरूप की मूर्तिमान अभिव्यक्ति हैं. भगवान नारायण के भीतर से एक दिव्य नारी प्रकट हुईं, जिनका नाम रखा गया ‘राधा’.
भगवान ने कहा— ‘मैं इन्हीं के कारण ईश्वर हूं. ये मेरी आराध्या हैं. मेरे बिना ये अधूरी नहीं, मैं इनके बिना अधूरा हूं. इसलिए इनका नाम राधा है.’

राधा: शुकदेव की गुरु

एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार, राधा रानी स्वयं शुकदेव मुनि की आध्यात्मिक गुरु थीं. उन्हें राधा से ही ‘रस’ और ‘आनंद’ की दीक्षा मिली थी. यही कारण है कि वे उनके नाम का उच्चारण करने मात्र से समाधि में चले जाते.

धार्मिक मर्यादा का कारण

वेणुगोलाप दास जी महाराज के अनुसार, जैसे सनातन धर्म में पत्नी अपने पति का नाम नहीं लेती या मां बड़े पुत्र का नाम नहीं लेती, वैसे ही शुकदेव मुनि ने भी अपनी गुरु और आराध्या राधा का नाम भागवत में नहीं लिया. यह मर्यादा, श्रद्धा और आत्मिक स्थिति का प्रतीक है.

श्रीकृपालु महाराज की व्याख्या

जगद्गुरु श्रीकृपालु महाराज ने कहा था, ‘अगर शुकदेव जी राधा नाम ले लेते, तो छह माह तक समाधि में चले जाते. तब राजा परीक्षित का उद्धार कौन करता? इसलिए उन्होंने राधा को छिपा लिया, लेकिन वह श्रीकृष्ण की आत्मा हैं. भागवत का हर श्लोक राधा की छाया लिए है.’

✧ धार्मिक और अध्यात्मिक

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