रुद्रपुर उत्तराखंड, जिसे लोग “देवभूमि” कहते हैं, अब धीरे-धीरे “ड्रगभूमि” बनता जा रहा है। हाल ही में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) की देहरादून ज़ोनल यूनिट ने जो सनसनीखेज खुलासा किया है, वह केवल एक रैकेट का भंडाफोड़ नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की गिरती हुई रीढ़ की कहानी है। ट्रामाडोल और एल्प्राजोलम जैसी फार्मा ड्रग्स की करोड़ों की खेप जब्त हुई है, फर्जी कंपनियां पकड़ी गई हैं, किराए के लाइसेंस से धड़ल्ले से नशीली दवाएं खरीदी-बेची जा रही हैं – और सरकारें क्या कर रही हैं? केवल बयानबाज़ी और पुलिस की पीठ थपथपाना?


सोचने वाली बात यह है कि देहरादून के विकासनगर से लेकर जसपुर, सहारनपुर और बरेली तक फैले इस फार्मा ड्रग सिंडिकेट में एक दूधवाला भी शामिल है, जिसने 5 हजार रुपये महीने में ड्रग लाइसेंस किराए पर दिया। क्या किसी ड्रग विभाग के अफसर ने कभी इन लाइसेंसों की जांच की? क्या ड्रग कंट्रोलर की आंखों में धूल झोंककर ही यह सब संभव हुआ, या फिर उन्होंने खुद आंखें मूंद रखी हैं?
NCB की कार्रवाई तो सराहनीय है, लेकिन यह भी बताती है कि राज्य पुलिस, ड्रग विभाग और स्थानीय प्रशासन कितने अक्षम, उदासीन और संभवतः मिलीभगत में हैं। आखिर इतने बड़े पैमाने पर नशीली दवाएं गोदामों में भरकर कैसे रखी जा रही थीं? क्या यह सब बिना राजनीतिक संरक्षण या पुलिस की अनदेखी के संभव है?
कई सवाल उठते हैं—आखिर ये फर्जी फर्में वर्षों से किसकी छत्रछाया में फल-फूल रही थीं?क्या सरकार की नाक के नीचे इतने बड़े पैमाने पर नशे का व्यापार होता रहा और किसी को भनक नहीं लगी?राज्य सरकार के नशामुक्ति अभियान क्या सिर्फ पोस्टरों और वादों तक सीमित हैं?और सबसे अहम – आखिर इस “नशीले कुचक्र” का असली सरगना कौन है?
उत्तराखंड में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति केवल स्वास्थ्य संकट नहीं है, यह युवाओं के भविष्य पर किया जा रहा सुनियोजित हमला है। यह न सिर्फ कानून व्यवस्था का मज़ाक है, बल्कि राज्य के सामाजिक तानेबाने को तोड़ने की एक साजिश है।
इसका मतलब है कि जहां एक ओर युवा रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इस पलायन का फायदा उठाकर नशे की मंडियां सजा रहे हैं। ट्रामाडोल, जिसे लोग “पुअर मैन का कोकिन” कहते हैं, आज हर कस्बे में 10 रुपये की गोली बन चुकी है। और एल्प्राजोलम, जो मानसिक रोगों की दवा है, वह अब ड्रग एडिक्ट्स की रातों की साथी बन गई है।
यह सिर्फ एक ड्रग रैकेट की खबर नहीं, बल्कि एक चेतावनी है – अगर सरकार और समाज नहीं चेते, तो उत्तराखंड जल्दी ही पंजाब की राह पर होगा। एनसीबी अमृतसर द्वारा जब 547 करोड़ रुपये का फार्मा ड्रग कार्टेल पकड़ा गया था, तब सभी चौंक गए थे। अब वही खेल उत्तराखंड और बरेली में दोहराया जा रहा है। सवाल ये नहीं है कि कितनी ड्रग्स पकड़ी गई, सवाल ये है कि अब तक कितनी खप चुकी हैं?
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तराखंड की छवि धार्मिक पर्यटन और प्रकृति की गोद के लिए है, न कि फार्मा ड्रग्स के अड्डे के रूप में। इस रैकेट की निष्पक्ष न्यायिक जांच होनी चाहिए। दोषी अफसरों, नेताओं और कारोबारियों को बेनकाब किया जाना चाहिए, वरना देवभूमि का नाम ही नहीं, आत्मा भी कलंकित हो जाएगी।
समय आ गया है—जब केवल रेड की खबर नहीं, बल्कि जवाबदेही की कार्रवाई ज़रूरी है। वरना अगली पीढ़ी सिर्फ नशे और नाउम्मीदी का उत्तराधिकारी बनेगी।
✍️ संपादक – अवतार सिंह बिष्ट
/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स
रुद्रपुर, उत्तराखंड

