उत्तराखंड राज्य गठन से पहले कल्याणी नदी रुद्रपुर की पहचान हुआ करती थी। लगभग 100 मीटर चौड़ी यह नदी वर्षाजल को समेटने में सक्षम थी और आसपास की भूमि को उपजाऊ बनाने का प्राकृतिक साधन भी। लेकिन आज जब हम कल्याणी नदी की स्थिति को देखते हैं, तो यह कभी की विशाल जलधारा अब नालों और अतिक्रमण के बीच सिसकती दिखाई देती है। नदी की चौड़ाई कई स्थानों पर मात्र 15 से 20 मीटर रह गई है।✍️अवतार सिंह बिष्ट,हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी



इस विनाश के लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार है – मानव लालच और सरकारी निष्क्रियता। सत्ता और धन के गठजोड़ ने नदी की भूमि को बेच डाला, पाट डाला, और उस पर आलीशान इमारतें, कॉलोनियां और उद्योग खड़े कर दिए गए। तथाकथित ‘विकास’ के नाम पर प्रकृति की रीढ़ तोड़ दी गई। नगर निगम, जिला प्रशासन, और भू-माफियाओं की मिलीभगत ने इस प्राकृतिक धरोहर को एक संकरी नाली बना दिया।
हर साल जब मानसून आता है, तो यह नदी बदला लेने की मुद्रा में आ जाती है। पानी घरों में घुसता है, लोगों की ज़िंदगी खतरे में पड़ जाती है और जान-माल की क्षति होती है। लेकिन फिर भी न तो अतिक्रमण हटाने की ईमानदार कोशिश होती है, न नदी पुनर्जीवन की कोई ठोस योजना सामने आती है।
यह सवाल हम सभी से है – क्या हम केवल विकास की इमारतें खड़ी करेंगे या प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर चलना सीखेंगे? अगर कल्याणी नदी को नहीं बचाया गया, तो यह त्रासदी बार-बार लौटेगी, और हर बार अधिक दर्दनाक रूप में।
अब समय आ गया है कि कल्याणी नदी को उसकी मूल पहचान लौटाई जाए – एक स्वच्छ, चौड़ी, और स्वतंत्र नदी के रूप में। यही सच्चा विकास होगा।
रुद्रपुर की धरती इन दिनों त्रासदी की एक भयावह कहानी कह रही है। कल्याणी नदी, जो कभी जीवनदायिनी हुआ करती थी, अब शहर के लिए विनाश का पर्याय बन गई है। बीते दिनों आई भारी वर्षा के बाद यह नदी इस कदर उफन पड़ी कि आसपास की बस्तियों को अपनी चपेट में ले लिया। पानी घरों में घुस गया, जीवन अस्त-व्यस्त हो गया और इस त्रासदी ने एक मासूम जीवन भी लील लिया।
हम 16 वर्षीय सूरज की असमय मृत्यु पर गहरा शोक व्यक्त करते हैं। सूरज का परिवार उन हजारों परिवारों में से एक है जो कल्याणी नदी के किनारे झुग्गियों और कच्चे मकानों में रहते हैं। ये लोग रोज कुआं खोदते हैं, रोज पानी पीते हैं – यानी दिहाड़ी मजदूर, सफाईकर्मी, रेहड़ी-पटरी वाले और समाज के वे वर्ग जिनकी ज़िन्दगी हर दिन संघर्ष से भरी होती है। इनके पास न तो पक्की छत है, न सुरक्षित जीवन। प्रशासन की अनदेखी और बेतरतीब शहरी विकास ने इनकी स्थिति को और भी दयनीय बना दिया है।
हर साल जब कल्याणी नदी उफान पर आती है, तो यह इलाका त्रासदी का नया चेहरा बन जाता है। यह प्राकृतिक नहीं, बल्कि प्रशासनिक चूक और नीति विफलता की निर्मम परिणति है। राहत सामग्री का वितरण अब तक नहीं हुआ, और जनप्रतिनिधि सिर्फ पानी में खड़े होकर फोटो खिंचवाने में व्यस्त हैं।
आज सूरज चला गया, कल किसी और की बारी होगी। क्या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा? क्या राज्य बनने के 25 वर्षों बाद भी हम अपने नागरिकों को सुरक्षित आवास, बाढ़ सुरक्षा, और जीवन रक्षा की बुनियादी गारंटी नहीं दे सकते?
इस सवाल का जवाब सिर्फ सरकार को नहीं, पूरे समाज को देना है। वरना हर बारिश एक सूरज को डुबोती रहेगी।

