उत्तराखंड की 25 वर्षों की यात्रा: तरक्की का भ्रम या यथार्थ?”अधूरी कल्पनाः उत्तराखंड राज्य की मूल अवधारणा और आज की हकीकत”

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9 नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में जन्मा उत्तराखंड जनांदोलन की कोख से निकला ऐसा राज्य था, जिससे लोगों ने उम्मीद की थी कि यह उनके जीवन को बदलेगा, पहाड़ों को आबाद रखेगा और उन्हें सम्मानपूर्वक आजीविका उपलब्ध कराएगा। लेकिन आज, जब हम 2 मई 2025 को इस नवगठित राज्य के 25 वर्षों की यात्रा को देखते हैं, तो कई सवाल मुंह बाए खड़े हैं: क्या हम अपने सपनों को साकार कर पाए? क्या हमने प्रगति की? या हमने सिर्फ आंकड़ों और नारों के पीछे विकास की झूठी छाया देखी?

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

यह लेख उत्तराखंड के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य, पलायन, बेरोजगारी और राजनीतिक पक्षों का समग्र मूल्यांकन प्रस्तुत करता है।

1. सांस्कृतिक पहलू: विरासत की उपेक्षा और उत्सवों की राजनीति

उत्तराखंड की लोक-संस्कृति – चाहे वो गढ़वाली, कुमाऊंनी, या जौनसारी परंपराएं हों – इस राज्य की आत्मा है। राज्य गठन के शुरुआती वर्षों में सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर कई महोत्सव आयोजित हुए, लेकिन यह क्रम धीरे-धीरे राजनीतिक प्रचार का माध्यम बन गया।

लोक कलाकारों को आर्थिक सहयोग नहीं मिला, और पर्वतीय क्षेत्रों में सांस्कृतिक केंद्र बंद होते चले गए। अनेक प्राचीन मेलों और त्योहारों की आत्मा खो गई।

2. सामाजिक संरचना: समरसता की जगह असमानता

राज्य गठन का उद्देश्य सामाजिक न्याय और समरसता को बढ़ावा देना था। लेकिन आज भी समाज जातीय, क्षेत्रीय और आर्थिक आधार पर बंटा है। पहाड़ बनाम मैदान, स्थानीय बनाम बाहरी, दलित बनाम सवर्ण – ये विभाजन बढ़े हैं।

महिलाओं के दोहरे बोझ – घर व जंगल – में कोई बदलाव नहीं आया। ‘घस्यारी योजना’ जैसे प्रयास प्रतीकात्मक बने रहे। सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ अक्सर केवल राजनीतिक रसूख वालों तक सीमित रहा।

3. आर्थिक पक्ष: दोहरी गति वाली अर्थव्यवस्था

औद्योगिक पैकेज (2003) से रुद्रपुर, काशीपुर, हरिद्वार जैसे मैदानी इलाके चमक उठे लेकिन पर्वतीय क्षेत्र आर्थिक विकास की मुख्यधारा से कटे रहे।

कृषि की उपेक्षा, फल उत्पादन और जल संसाधनों के बेहतर उपयोग की संभावनाओं का दोहन नहीं किया गया। पर्यटन को लेकर नीति बनी लेकिन अतिथि भवनों की जगह पहाड़ों में सीमेंट के जंगल उग आए।

राजकोषीय घाटा बढ़ता गया, कर्ज़ पर निर्भरता बढ़ी और वित्तीय आत्मनिर्भरता का सपना दूर होता चला गया।

4. स्वास्थ्य सेवाएं: हेलीकॉप्टर से रेफर, धरातल पर शून्य

राज्य गठन से पहले भी पहाड़ में स्वास्थ्य सेवाएं कमजोर थीं, लेकिन 25 वर्षों में उनमें कोई बुनियादी सुधार नहीं हुआ। अधिकतर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना डॉक्टर, बिना दवा और बिना उपकरणों के चलते हैं।

गर्भवती महिलाओं को 20-30 किलोमीटर पैदल चलकर स्वास्थ्य केंद्र पहुंचना पड़ता है। मेडिकल कॉलेज खुले, पर उनमें फैकल्टी और आधारभूत ढांचे का अभाव रहा।

5. शिक्षा: सरकारी स्कूलों का पतन और निजीकरण की होड़

राज्य गठन के बाद उम्मीद थी कि शिक्षा में क्रांति आएगी। लेकिन सरकारी स्कूलों की दुर्दशा ने जनविश्वास तोड़ा है। अध्यापक नहीं, भवन जर्जर, और गुणवत्ता में गिरावट।

उधर निजी स्कूलों की संख्या बढ़ी, लेकिन वे आम जनता की पहुँच से बाहर हैं। बोर्ड परीक्षा परिणामों में लगातार निजी स्कूल अव्वल रहते हैं, जबकि सरकारी स्कूल विफल हो रहे हैं।

6. पलायन: खाली होते गांव और मरती संस्कृति

पलायन आज उत्तराखंड का सबसे बड़ा संकट है। ‘पलायन आयोग’ बना, उसकी रिपोर्ट आई, पर उस पर कार्रवाई नहीं हुई।

1,000 से अधिक गांव पूरी तरह वीरान हो चुके हैं। खेती छोड़कर लोग महानगरों में मज़दूरी कर रहे हैं। इससे न केवल सांस्कृतिक क्षरण हुआ, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों की भी उपेक्षा हुई।

7. बेरोजगारी: कागज़ी योजनाएं, ज़मीनी सच्चाई उलट

राज्य गठन के साथ युवाओं के लिए रोजगार का वादा किया गया था। लेकिन 25 वर्षों में ये वादा एक छलावा साबित हुआ। UKSSSC, UBTER, और अन्य आयोगों की भर्तियों में पेपर लीक, घोटाले और न्यायालयीन विवादों ने युवाओं का भविष्य लटका दिया।

स्वरोजगार योजनाएं भ्रष्टाचार और लालफीताशाही की भेंट चढ़ गईं। पर्वतीय क्षेत्रों में कोई औद्योगिक नीति नहीं बन पाई।

8. राजनीतिक परिदृश्य: अस्थिरता, दलबदल और लोकलुभावनवाद

25 वर्षों में उत्तराखंड ने 13 मुख्यमंत्री देखे – यानी हर 2 साल में नेतृत्व परिवर्तन। यह राजनीतिक अस्थिरता राज्य के विकास की सबसे बड़ी बाधा रही है।

दलबदल, खेमेबाजी और ‘मुख्यमंत्री चेहरे’ का संकट लगातार बना रहा। राज्य आंदोलनकारियों को भूलकर सत्ता का केंद्रीकरण चंद लोगों में होता चला गया।

लोकलुभावन घोषणाएं हुईं – हर परिवार को नौकरी, हर गांव में सड़क – लेकिन अधिकांश वादे चुनावी जुमले बनकर रह गए।

9. पर्यावरणीय संकट और आपदाएं: अनियोजित विकास की कीमत

केदारनाथ आपदा (2013), चमोली हादसा (2021), और लगातार भूस्खलन की घटनाएं बताती हैं कि राज्य विकास की दौड़ में पर्यावरणीय विवेक खो बैठा है।

चारधाम सड़क परियोजना, टनल निर्माण, और जलविद्युत परियोजनाओं ने पारिस्थितिक संतुलन को नुकसान पहुंचाया है। आपदा प्रबंधन विभाग की तैयारियां हर वर्ष मानसून में बेनकाब होती हैं।

रास्ता अभी शेष हैउत्तराखंड की 25 वर्ष की यात्रा मिश्रित रही है। जहां कुछ क्षेत्रों में उन्नति हुई है, वहीं कई मोर्चों पर राज्य पिछड़ गया। यह एक ऐसा राज्य बन गया है जो दो विपरीत गतियों में बंटा है – एक चमकता मैदान और एक छूटता हुआ पहाड़।समस्या किसी सरकार विशेष की नहीं, बल्कि नीति, नीयत और दृष्टि की रही है। अब जरूरत है कि जनआंदोलन की भावना को पुनः जाग्रत किया जाए, जनता को फिर से भागीदारी दी जाए, और नीतियां केवल सत्ता के लाभ के लिए नहीं, जनता के भविष्य के लिए बनाई जाएं।उत्तराखंड को चाहिए – पहाड़ के लिए समर्पित नीति, पारदर्शी प्रशासन, संवेदनशील नेतृत्व और जवाबदेही की संस्कृति। तभी यह राज्य अपने नाम को सार्थक कर पाएगा – देवभूमि और जनभूमि दोनों के रूप में।


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