मां नंदा देवी से जुड़े हैं प्रदेश के कई उत्सव  उत्तराखंड राज्य में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा गया है.

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  ।  नंदा देवी मंदिर देश ही नहीं विदेशी सैलानियों की आस्था का भी केंद्र है। मा नंदा को पार्वती का रूप माना जाता है। वर्ष 1638-78 के दौरान चंद राजा बाज बहादुर चंद ने पंवार राजा को युद्ध में पराजित किया और विजय के प्रतीक के रूप में बधाणकोट से नंदा देवी की स्वर्ण प्रतिमा को लेकर यहा आए। जिसे उस समय मल्ला महल (वर्तमान कलक्ट्रेट परिसर) में स्थापित किया गया। बाद में कुमाऊं के तत्कालीन कमिश्वर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को दीप चंद्रेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया। मा नंदा की सात बहनें मानी जाती हैं।

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जो लाता, द़्योराड़ी, पैनीगढ़ी, चादपुर, कत्यूर, अल्मोड़ा और नैनीताल में स्थित हैं। उत्तराखंड में नंदा देवी पर्वत शिखर, रूपकुंड, व हेमकुंड नंदा देवी के प्रमुख पवित्र स्थलों में एक हैं। माना जाता है कि नंदा ने ससुराल जाते समय रूप कुंड में स्नान किया था। उनका सुसराल कैलाश में महेश्वर के यहा था। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में शिव की पत्‍‌नी पार्वती को ही मा नंदा माना गया है। कैनोपनिषद में हिमालय पुत्री के रूप में हेमवती का उल्लेख मिलता है। हिंदू धर्मग्रंथों की बात करें तो इनमें देवी के अनेक स्वरूप गिनाए गए हैं। जिनमें शैलपुत्री नंदा को योग माया व शक्ति स्वरूपा का नाम दिया गया है।

मा नंदा से जुड़े हैं प्रदेश के कई उत्सव

मा नंदा से जुड़े अनेक पर्व आज भी कुमाऊं और गढ़वाल में बड़े ही उत्साह से मनाए जाते हैं। मा नंदा के भाई और उनके अंगरक्षक लाटू देवता का पूजन सावन के महीने में हरेला पर्व के रूप में शिव-पार्वती के रूप में किया जाता है। मा नंदा को सुख समृद्धि देने वाली हरित देवी भी माना गया है। प्रदेश के अलग अलग क्षेत्रों में भगवती नंदा से जुड़े उत्सवों को मनाने की परंपरा है। भिटोली का पर्व भी नंदा से जुड़ी मान्यता का रूप माना जाता है। जिसमें भाई बहन के ससुराल जाकर उसे तरह तरह की चीजें भेंट करता है। मा नंदा देवभूमि उत्तराखंड की अगाध आस्था का पर्याय है। यही कारण है कि यहा कई नदियों, पर्वत श्रखलाओं व नगरों के नाम भी मा नंदा के नाम पर रखे गए हैं।

अल्मोड़ा का नंदा देवी मंदिर

अल्मोड़ा में गोरखा काल से इस मंदिर को नंदा देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है। जहा अब हर साल नंदा देवी का भव्य मेला यहा आयोजित होता है। नंदा देवी मंदिर में स्थित पार्वतेश्वर और उद्योतचंद्रेश्वर मंदिर की बनावट नागर शैली की है। जिसमें भव्य नक्काशी की गई है। मंदिर की दीवारों में अनेक चित्र बनाए गए हैं। मंदिर के ऊपर आठ खंभों वाला बिजौरा बना हुआ है। मंदिर की दीवारों पर लोक गाथाओं, लोक परंपराओं, दैत्य मानव संग्राम की कलाकृतियों को उकेरा गया है।

पत्थर का मुकुट और अन्य कलाकृतिया मंदिर की शोभा को और अधिक बढ़ा देती हैं। जबकि पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता के चित्रों को भी सुंदर तरीके से चित्रित किया गया है। मां पार्वती के रूप में की जाती है पूजा


अल्मोड़ा का नंदा देवी मेला धार्मिक आस्था का प्रतीक है। यहा मा नंदा की पूजा शक्ति स्वरूपा मा पार्वती के रूप में की जाती है। नंदा देवी मेला भाद्र माह की शुक्ल षष्ठी से प्रारंभ होता है। इसी दिन मा नंदा की पूजा की जाती है। देवी का अवतार जिस पर होता है उसे देवी का डंगरिया कहा जाता है। मा नंदा की पूजा के लिए केले के वृक्षों से मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। केले के वृक्षों के चयन के लिए डंगरिया हाथ में चावल और पुष्प लेकर उसे केले के वृक्षों की ओर फेंकते हैं। जो वृक्ष हिलता है उसकी पूजा कर उसे मा के मंदिर में लाया जाता है। देवी की मूर्तियों के निर्माण का कार्य सप्तमी के दिन से शुरू होता है। जबकि अष्टमी को मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इस दौरान नंदा देवी परिसर में भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है। केसी सिंह बाबा करते हैं मेले का प्रतिनिधित्व

नंदा देवी महोत्सव का आयोजन सालों पूर्व चंद वंशीय राजाओं की अल्मोड़ा शाखा द्वारा किया जाता था। लेकिन 1938 में इस वंश के अंतिम राजा आनंद चंद के कोई संतान न होने के कारण इस महोत्सव का आयोजन चंद वंश की काशीपुर शाखा द्वारा किया जाने लगा। वर्तमान में इस मेले का प्रतिनिधित्व नैनीताल के पूर्व सासद केसी सिंह बाबा द्वारा किया जाता है।

नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़
नन्दा देवी सातवीं सदी से भी पुराना मंदिर
स्थापित
7वीं शताब्दी
मन्दिर का उद्गम

२,शायद ही किसी पर्वत से देशवासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से उत्तराखंड क्षेत्र के लोगों का है. उत्तराखंड की आराध्य देवी हैं मां नंदा-सुनंदा. समूचे उत्तराखंड में हिमालय पुत्री नंदा की एक बहुत बड़ी मान्यता है.

उत्तराखंड में नंदादेवी के अनेक मंदिर हैं. यहाँ की अनेक नदियां एवं पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है. नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियां, नदियां तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं.

नंदा के सम्मान में कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं. भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रृंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊं और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है. इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं.

हर वर्ष उत्तराखंड की जनता द्वारा मां नंदा-सुनंदा की पूजा-अर्चना पूर्ण भक्ति भाव के साथ की जाती है. प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष आयोजित होने वाली नंदादेवी मेला समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की याद दिलाता है.

महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।[

धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मां नंदादेवी का मेला प्रत्येक वर्ष पर्वतीय क्षेत्र में विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है. मां नंदा को पूरे उत्तराखंड में विशेष मान मिला है. वेदों में जिस हिमालय पर्वत को देवात्मातुल्य माना गया है नंदा उसी की सुपुत्री है. कुमाऊं की संस्कृति को समझने के लिए नन्दादेवी मेला देखना जरुरी है.

आदिशक्ति नंदा देवी को उत्तराखंड में बड़ी श्रद्धा से पूजने की परंपरा शताब्दियों से है. मां नंदा के मान-सम्मान में उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिवर्ष मेलों का आयोजन किया जाता है. यह मेला अल्मोड़ा सहित नैनीताल, कोटमन्या, भवाली, बागेश्वर, रानीखेत, चम्पावत व गढ़वाल क्षेत्र के कई स्थानों में आयोजित होते है.

उत्तराखंड में गढ़वाल के पंवार राजाओं की भांति कुमांऊ के चन्द राजाओं की कुलदेवी भी नंदादेवी ही थीं इसलिये दोनों ही मंडलों के लोग नन्दा देवी के उपासक हैं.

नंदा देवी का मेला चंद वंश के शासन काल से अल्मोड़ा में मनाया जाता रहा है. इसकी शुरुआत राजा बाज बहादुर चंद के शासन काल से हुई थी. राजा बाज बहादुर चंद ( सन् 1638-78 ) ही नन्दा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे. इस विग्रह को उस कालखंड में अल्मोड़ा कचहरी परिसर स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया था. सन 1815 में ब्रिटिश हुकुमत के दौरान तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नन्दा की प्रतिमा को मल्ला महल से दीप चंदेश्वर मंदिर, अल्मोड़ा में स्थापित करवाया था.

इतिहास के मुताबिक सन् 1670 में कुमाऊं के चंद शासक राजा बाज बहादुर चंद ने बधाणकोट किले से मां नंदा देवी की स्वर्ण प्रतिमा लाए और उसे यहां मल्ला महल ( वर्तमान कलेक्ट्रेट परिसर अल्मोड़ा ) में स्थापित किया. तब से उन्होंने मां नंदा का कुलदेवी के रूप में पूजन शुरू किया. सन 1690 में तत्कालीन राजा उद्योत चंद ने पार्वतीश्वर और उद्योत चंद्रेश्वर नामक दो शिव मंदिर मौजूदा नंदादेवी मंदिर अल्मोड़ा में बनाए. आज भी ये मंदिर उद्योत चंद्रेश्वर व पार्वतीश्वर के नाम से प्रचलित हैं. मल्ला महल वर्तमान कलक्ट्रेट परिसरद्ध में स्थापित नंदादेवी की मूर्तियों को भी सन् 1815 में ब्रिटिश हुकुमत के दौरान तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने उद्योत चंद्रेश्वर मंदिर में रखवा दिया.

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार एक दिन कमिश्नर ट्रेल नंदादेवी चोटी की ओर जा रहे थे तो राह में अचानक उनकी आंखों की रोशनी चली गई. लोगों की सलाह पर उन्होंने अल्मोड़ा में नंदादेवी का मंदिर बनवाकर वहां नंदादेवी की मूर्ति स्थापित करवाईए तो रहस्यमय ढंग से उनकी आंखों की रोशनी लौटी. इसके अलावा कहा जाता है कि राजा बाज बहादुर प्रतापी थे. जब उनके पूर्वजों को गढ़वाल पर आक्रमणों के दौरान सफलता नहीं मिलीए तो राजा बाज बहादुर ने प्रण किया कि अगर उन्हें युद्ध में विजय मिली तो नंदादेवी की अपनी इष्ट देवी के रूप में पूजा करेंगे.

आदिशक्ति नंदादेवी का पवित्र धाम उत्तराखंड को माना जाता है. चमोली के घाट ब्लॉक में स्थित कुरड़ गांव को उनका मायका और थराली ब्लाक में स्थित देवराडा को उनकी ससुराल. जिस तरह आम पहाड़ी बेटियां हर वर्ष ससुराल जाती हैं माना जाता है कि उसी संस्कृति का प्रतीक नंदादेवी भी 6 महीने ससुराल औऱ 6 महीने मायके में रहती हैं.

नन्दा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं. रूप मंडन में पार्वती को गौरी के छरू रुपों में एक बताया गया है. भगवती की 6 अंगभूता देवियों में नन्दा भी एक है. नन्दा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है. भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नन्दा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं. शिवपुराण में वर्णित नन्दा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है. शक्ति के रूप में नन्दा ही सारे हिमालय में पूजित हैं. कुमाऊं मंड़ल के अतिरिक्त भी नन्दादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं.

नैतीताल में नन्दादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिक नन्दादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है.

नंदादेवी मेला प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है. पंचमी तिथि को जागर के माध्यम से मां नंदा-सुनंदा का आह्वान किया जाता है. इसी दिन गणेश पूजन कर कार्य के निर्विघ्न संपन्न होने की कामना की जाती है. पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं. पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है. यह प्रतिमायें कदली, केलाद्ध स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं. नन्दा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊंची चोटी नन्दादेवी के सदृश्य बनाया जाता है. स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नन्दा पर्वत के शीर्ष पर नन्दादेवी का वास है. कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नन्दादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है. भगवती नन्दा की पूजा तारा शक्ति के रूप में षोडशोपचार. पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है.

सम्भवतरू यह मातृशक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ.

षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है. षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है. धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं. जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है. दूसरा जो स्तम्भ हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं. कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं. पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान श्महिषासुर मर्दिनीश् के रुप में किया जाता है. सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है. इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है. उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है. तब विधि अनुसार चयनित किये गये कदली स्तम्भों के पूजन अर्चन के बाद मेले की गतिविधियां प्रारम्भ हो जाती है. प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है. स्थानीय शिल्पी अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परम्परानुसार नंदामुखाकृतियां निर्मित करते हैं. मुखाकृतियों के आंगिक श्रंगार और आभूषणों से अलंकृत करने के बाद उनका पूजन किया जाता है. मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है.

मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है. इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं. दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं. अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं. मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है. अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं. नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं.

अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है. पहले से ही विशेष तांत्रिक पूजा चंद शासक व उनके परिवार के सदस्य करते आए हैं. वर्तमान में चंद वंशज नैनीताल के पूर्व सांसद केसी सिंह बाबा राजा के रूप में सपरिवार पूजा में बैठते हैं. अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है.

यूं तो पूरे उत्तराखंड के लोगों में मां नंदा के प्रति अटूट आस्था है. हर बरस जगह-जगह लगने वाले नंदा देवी के मेले में उमड़ने वाला सैलाब अटूट आस्था को प्रदर्शित करता है. मगर सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा का नंदादेवी मेले का अपना खासा महत्व है. यहां नंदादेवी मंदिर स्थापना के पीछे एतिहासिक तथ्य जुड़े हैं और यहां मां नंदा को प्रतिष्ठित करने का श्रेय चंद शासकों को है.

मेले के अवसर पर कुमाऊं की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक जगरिये मंदिर में आकर नन्दा की गाथा का गायन करते हैं. मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है. इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियां नन्दा देवी मंदिर प्रांगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं. झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं. कुमाऊं की संस्कृति को समझने के लिए नन्दादेवी मेला देखना जरुरी है. मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं. वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं. अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं.

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नन्दा देवी राजजात यात्रा :


नन्दादेवी एक दृढ़ आस्था का प्रती

क है तथा इसे परम्परा के अनुसार निभाकर हर बारहवें वर्ष में राजजात का भव्य आयोजन किया जाता है. नन्दा देवी राजजात यात्रा उत्तराखंड राज्य में होने वाली एक धार्मिक यात्रा है. यह उत्तराखंड के कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध सांस्कृतिक आयोजनों में से एक है. यह प्रत्येक बारहवें वर्ष आयोजित होती है. पिछली राजजात यात्रा सन् 2012 में हुयी थी अतः अब अगली राजजात यात्रा सन् 2023 में होगी.

लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुमाऊं के कत्यूरी राजवंश की भी इष्टदेवी थी. इष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर भी सम्बोधित किया जाता है. नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है. नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी.

पूरे उत्तराखंड राज्य में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा गया है. रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं. साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नन्दा जागरी ( नन्दादेवी की गाथा गाने वाले ) भी इस यात्रा की कहानी को बयां करते हैं.

नन्दादेवी से जुडी जात ( यात्रा ) दो प्रकार की हैं. वार्षिक जात और राजजात. वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर माह में होती है. जो कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर वेदनी कुण्ड तक जाती है और फिर लौट आती है लेकिन राजजात 12 वर्ष या उससे अधिक समयांतराल में होती है. मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के नौटीगाँव से शुरू होती है और कुरूड़ के मन्दिर से भी दशोली और बधॉण की डोलियां राजजात के लिए निकलती हैं. इस यात्रा में लगभग 280 किलोमीटर की दूरीए नौटी से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है.

इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है. अलग-अलग रास्तों से ये डोलियां यात्रा में मिलती है. इसके अलावा गाँव-गाँव से डोलियां और छतौलियां भी इस यात्रा में शामिल होती है. कुमाऊं से भी अल्मोडा, कटारमल और नैनीताल से डोलियां नन्दकेशरी में आकर राजजात में शामिल होती है. नौटी से शुरू हुई इस यात्रा का दूसरा पड़ाव इड़ा-बधाणीं है. फिर यात्रा लौट कर नौटी आती है. इसके बाद कासुंवा, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपडों, लोहाजंग, वाँण, बेदनी, पातर नचौणियां से विश्व-विख्यात रूपकुण्ड, शिला-समुद्र, होमकुण्ड से चनण्याँघट ( चंदिन्याघाट ), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है.

हिमालयन गजेटियर लिखने वाले ई. एटकिन्सन के साथ ही अन्य विद्वान एच. जी. वाल्टन, जी.आर. सी. विलियम्स व भारतीय इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल, डॉ. शिवराज सिंह रावत, यमुना दत्त वैष्णव, पातीराम परमार एवं राहुल सांकृत्यायन आदि के अनुसार नन्दा याने कि पार्वती हिमालय पुत्री है और उसका ससुराल भी कैलाश माना जाता है. इसलिये वह खसों या खसियों की प्राचीनतम् आराध्य देवी है. पंवार वंश से पहले कत्यूरी वंश के शासनकाल से इस यात्रा के प्रमाण हैं. डॉ॰ डबराल आदि के अनुसार रूपकुण्ड दुर्घटना सन् 1150 में हुयी थी जिसमें राजजात में शामिल होने पहुंचे कन्नौज नरेश यशोधवल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा की सुरक्षा और मनोरंजन आदि के लिये सेकड़ों की संख्या में साथ लाये हुये दलबल की मौत हो गयी थी. जिनके कंकाल आज भी रूप कुण्ड में बिखरे हुये हैं.

चमोली का नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़ एक मन्दिर है, जो भगवती नंदा (पार्वती) को समर्पित है। यह भारत के उत्तराखंड राज्य के तटवर्ती शहर चमोली जनपद में स्थित है। नंदा शब्द का अर्थ जगत जननी भगवती होता है। इनकी नगरी ही नंदा धाम कहलाती है।[1][2] इस मन्दिर को नंदा का मायका मां नंदा भगवती का मूल स्थान यहां माना जाता है। इस मन्दिर की कैलाश यात्रा नंदा देवी राजजात उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर से नंदा देवी की दोनों डोलिया नंदा देवी डोली, उनके छोटे भाई लाटू देवता और भूम्याल भूमि के क्षेत्रपाल , दो अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर अपने मायके से ससुराल की यात्रा को निकलते हैं। श्री नंदा देवी राज राजेश्वरी कई नामों से पूरे ब्रह्मांड में पूजी जाती है । नंदा देवी राज राजेश्वरी, किरात, नाग, कत्यूरी आदि जातियों के मुख्य देवी थी। अब से लगभग 1000 वर्ष पुर्व किरात जाति के भद्रेश्वर पर्वत की तलहटी मैं नंदा देवी जी की पुजा किया करते थे [3] । मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव उत्तराखंड के कई नंदा देवी मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है।[4] यह मंदिर पहाड़ी परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इस मंदिर के मुख्य पुजारी कान्यकुब्जीय गौड़ ब्राह्मण हैं । सूरमाभोज गौड़ सर्वप्रथम यहां के पुजारी ही रहे हैं। वर्तमान में यहां पर दशोली क्षेत्र की नंदा की डोली, तथा बधाण क्षेत्र की नंदा की डोली यहां पर रहती हैं। दशोली (नंदानगर, कर्णप्रयाग, चमोली ब्लॉक) की नंदा की डोली साल भर यहां विराजमान रहती तथा बधाण की नंदा की डोली भाद्रपद में नंदा देवी जात के बाद थराली में स्थित देवराड़ा मंदिर में स्थापित हो जाती है तथा मकर संक्रान्ति में कुरुड मंदिर में पुनः आती है।

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नंदा देवी मंदिर कुरुड़
ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है, कि वर्तमान मन्दिर का निर्माण सातवीं सदी में हुआ । यह मंदिर समय-समय पर आधुनिकता के साथ जीर्णोद्धार होता गया।फिर सन 1210 में जाकर गढ़वाल शासक सोनपाल ने इस मन्दिर को जीर्णोद्धार करवाया। सन 1432 मैं गढ़वाल नरेश अजय पाल द्वारा अपनी कुल ईष्ट भवानी नंदा भगवती के मंदिर कुरुड़ में सोने का छत्र चढ़ाया गया।

नंदप्रयाग से 18 किमी आगे नंदाकिनी नदी के आंचल में बसा कुरुड़ कन्नौजी गौड़ ब्राह्माणों के आधिक्य वाला गांव है। यहां देवदार के विशालकाय वृक्ष की छांव में मां नंदा का प्राचीन मंदिर स्थापत्य कला का अनुपम प्रतीक है। इस मंदिर में नंदा की दो स्वर्ण प्रतिमाएं स्थापित हैं। प्रतिवर्ष ये प्रतिमाएं डोलियों में विराजमान हो वार्षिक जात को स्वरूप प्रदान करती हैं। एक स्वर्ण प्रतिमा बधाण क्षेत्र के गांवों का परिभ्रमण कर वेदिनी बुग्याल तक जाती है तो दूसरी दशौली की डोली में विराजमान होकर रामणी से ऊपर स्थित बुग्याल पहुंचती है। कुरुड़ की नंदा को राजराजेश्वरी के नाम से भी पूजा जाता है। तत्कालीन गढ़वाल नरेश ने कुरुड़ की नंदा को राजराजेश्वरी का दर्जा प्रदान करते हुए नंदा की शक्ति को सम्मान देकर ताम्रपत्र प्रदान किया था। बधाण की नंदा डोली की भव्य पूजा नंदकेसरी में राजजात से मिलन के समय होती है, जबकि दशौली की नंदा डोली वाण में बधाण की नन्दा देवी डोली के साथ नंदामय होकर जात को और शक्ति एवं आकर्षण प्रदान करती है। कुरुड़ के मंदिर में प्राकृतिक रूप से नंदा की कृष्णवर्ण पत्थर की छोटी मूर्ति स्थायी रूप से विद्यमान है, जो मंदिर से बाहर नहीं लाई जाती।

वर्तमान में मंदिर देवसारी नामक तोक में स्थित है।

मन्दिर से जुड़ी कथाएँ
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इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं।


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