फूलदेई त्यौहार (Phooldei festival) , का इतिहास व फूलदेई त्यौहार पर निबंध

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उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम जगविख्यात है। चाहे पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आंदोलन या प्रकृति का त्योहार हरेला हो। इसी प्रकार प्रकृति को प्रेम प्रकट करने का त्योहार या प्रकृति का आभार प्रकट करने का प्रसिद्ध त्यौहार फूलदेई मनाया जाता है।

फूलदेई त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई (Phool dei festival ) चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। फूल सग्यान ,फूल संग्रात या मीन संक्रांति उत्तराखंड के दोनों मंडलों में मनाई जाती है। कुमाऊं गढ़वाल में इसे फूलदेई और जौनसार में गोगा कहा जाता है।

नववर्ष के स्वागत का त्यौहार है फूलों का त्यौहार –

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सौर कैलेंडर का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्षेत्रों में हिन्दू नव वर्ष का प्रथम दिन मीन संक्रांति अर्थात फूल देइ से शुरू होता है। चैत्र मास में बसंत ऋतु का आगमन हुआ रहता है। प्रकृति अपने सबसे बेहतरीन रूप में विचरण कर रही होती है। प्रकृति में विभिन्न प्रकार के फूल खिले रहते हैं । नववर्ष के स्वागत की परम्परा विश्व के सभी सभ्य समाजों में पाई जाती है। चाहे अंग्रेजी समाज का न्यू ईयर डे हो ,या पडोसी तिब्बत का लोसर उत्सव हो। या पारसियों का नैरोज हो या सनातन समाज की चैत्र प्रतिपदा। फुलदेई पर्व के रूप में देवतुल्य बच्चों द्वारा प्रकृति के सुन्दर फूलों से नववर्ष का स्वागत किया जाता है।

मनाने की विधि –

कुमाउनी सांस्कृतिक परम्परा में इसका रूप इस प्रकार देखा जाता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकपर्व एवं बाल पर्व फूलदेई पर छोटे छोटे बच्चे पहले दिन अच्छे ताज़े फूल वन से तोड़ के लाते हैं। जिनमे विशेष प्योंली के फूल और बुरॉश के फूल का प्रयोग करते हैं। इस दिन गृहणियां सुबह सुबह उठ कर साफ सफाई कर चौखट को ताजे गोबर मिट्टी से लीप कर शुद्ध कर देती है। फूलदेई के दिन सुबह सुबह छोटे छोटे बच्चे अपने वर्तनों में फूल एवं चावल रख कर घर घर जाते हैं । और सब के दरवाजे पर फूल चढ़ा कर फूलदेई के गीत , ‘फूलदेई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार !! ” गाते हैं। और लोग उन्हें बदले में चावल गुड़ और पैसे देते हैं। छोटे छोटे देवतुल्य बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर शुभता और समृद्धि की मंगलकामना करते हैं। इस पर गृहणियां उनकी थाली में ,गुड़ और पैसे रखती हैं।

बनाया जाता है खास पकवान –

बच्चों को पुष्पार्पण करके जो आशीष और प्यार स्वरूप में जो भेंट मिलती है ,उससे अलग अलग स्थानों में अलग अलग पकवान बनाये जाते हैं। पुष्पार्पण से प्राप्त चावलों को भिगा दिया जाता है। और प्राप्त गुड़ को मिलाकर ,और पैसों से घी / तेल खरीदकर ,बच्चों के लिए हलवा ,छोई , शाइ , नामक स्थानीय पकवान बनाये जाते हैं। कुमाऊं के भोटान्तिक क्षेत्रों में चावल की पिठ्ठी और गुड़ से साया नामक विशेष पकवान बनाया जाता है।

उत्तराखंड के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरीक़े से फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। कुछ जगह एक दिन यह त्योहार मनाया जाता हैं। और उत्तराखंड के केदार घाटी में यह त्योहार 8 दिन तक मनाया जाता है। केदारघाटी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक यह त्योहार मनाया जाता है। बच्चे रोज ताजे फूल देहरी पर डालते हैं ,मंगल कामना करते हुए बोलते हैं “जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात !

कही आठ दिन तक तो कहीं पूरे माह मनाया जाता है ये त्यौहार –

इसके अतिरिक्त गढ़वाल मंडल के कई क्षेत्रों में यह त्यौहार पुरे महीने चलता है। वहां बच्चे फाल्गुन के अंतिम दिन अपनी फूल कंडियों में युली ,बुरांस ,सरसों ,लया ,आड़ू ,पैयां ,सेमल ,खुबानी और भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों को लाकर उनमे पानी के छींटे डालकर खुले स्थान पर रख देते हैं। अगले दिन सुबह उठकर प्योली के पीताम्भ फूलों के लिए अपनी कंडियां लेकर निकल पड़ते हैं। और मार्ग में आते जाते वे ये गीत गाते हैं। ”ओ फुलारी घौर।झै माता का भौंर। क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर । ”

प्योंली और बुरांश के फूल अपने फूलों में मिलकर सभी बच्चे ,आस पास के दरवाजों ,देहरियों को सजा देते है। और सुख समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। फूल लाने और दरवाजों पर सजाने का यह कार्यक्रम पुरे चैत्र मास में चलता रहता है। बैसाखी के दिन अधिक से अधिक फूल लाकर ,बड़ों के सहयोग से डोली बनाकर उसकी पूजा की जाती है। प्रत्येक घर से इस दिन बने निमित्त पकवानों ( स्यावंले \पकोड़ो ) से भोग लगाकर डोली सजाकर , डोली को घुमाकर एक स्थान पर विसर्जन किया जाता है। उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में इसे फुलारी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है।

अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की डोली की पूजा करके विदाई करके यह त्योहार सम्पन्न करते हैं। वहाँ फूलदेई खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में बच्चो को जो गुड़ चावल मिलते हैं,उनका अंतिम दिन भोग बना कर घोघा माता को भोग लगाया जाता है। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे ही कर सकते हैं। फुलारी त्योहार के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता का डोला सजाकर, उनको भोग लगाकर उनकी पूजा करते हैं।

फूलदेई त्योहार के गीत –

फूलदेई ( Phool dei festival) के दिन बच्चे उत्तराखंड की लोकभाषा कुमाउनी में एक गीत गाते हुए सभी लोगो के दरवाजों पर फूल डालते हैं, और अपना आशीष वचन देते जाते हैं।

कुमाउनी में फूलदेई के गीत –

“ फूलदेई छम्मा देई ,

दैणी द्वार भर भकार।

यो देली सो बारम्बार ।।

फूलदेई छम्मा देई

जातुके देला ,उतुके सई ।।

गढ़वाली में फुलारी के गीत –

ओ फुलारी घौर।

झै माता का भौंर ।
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।

डंडी बिराली छौ निकोर।
चला छौरो फुल्लू को।

खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
हम छौरो की द्वार पटेली।

तुम घौरों की जिब कटेली।

फूलदेई त्यौहार का इतिहास –

फूलदेई पर एक विशेष पिले रंग के फूल का प्रयोग किया जाता है ,जिसे प्योंली कहा जाता है। फूलदेई और फुलारी त्योहार के संबंधित उत्तराखंड में बहुत सारी लोककथाएँ प्रचलित हैं। और कुछ लोक कथाएँ प्योंलि फूल पर आधारित है। उनमें से एक लोककथा इस प्रकार है।

प्योंली की कहानी -:

प्योंली नामक एक वनकन्या थी।वो जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे। उसकी वजह जंगल मे हरियाली और सम्रद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल मे आया,उसे प्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया ।

प्योंली को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी, अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी। उधर जंगल मे प्योंली बिना पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। उधर प्योंली की सास उसे बहुत परेशान करती थी। प्योंली कि सास उसे मायके जाने नही देती थी।

प्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी। मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा। प्योंलि मायके की याद में तड़पते लगी। मायके की याद में तड़पकर एक दिन प्योंली मर जाती है।

राजकुमारी के ससुराल वालों ने उसे पास में ही दफना दिया। कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से प्योंली रख दिया ।

तब से पहाड़ो में प्योंली की याद में फूलों का त्योहार फूलदेई या फुलारी त्यौहार मनाया जाता है।

केदार घाटी में एक अन्य क लोक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है –

“एक बार भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी से विहार कर रहे थे । तब देवी रुक्मिणी भगवान श्री कृष्ण को खूब चिड़ा देती हैं , जिससे रुष्ट होकर भगवान छिप जाते हैं। देवी रुक्मणी भगवान को ढूढ ढूढ़ कर परेशान हो जाती है। और फ़िर देवी रुक्मिणी देवतुल्य छोटे बच्चों से रोज सबकी देहरी फूलों से सजाने को बोलती है। ताकि बच्चो द्वारा फूलों का स्वागत देख , भगवान अपना गुस्सा त्याग सामने आ जाय। और ऐसा ही होता है,बच्चों द्वारा पवित्र मन से फूलों की सजी देहरी आंगन देखकर भगवान का मन पसीज जाता है।और वो सामने आ जाते हैं।”

तब से इसी खुशी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक बच्चे रोज सबके देहरी व आंगन फूलों से सजाते हैं। और तब से इस त्यौहार को फूल संक्रांति , फूलदेई या फूलों का त्यौहार आदि नामों से जाना जाता है।

सौजन्य से देवभूमि दर्शन ग्रुप


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