
गुरु कुम्भ कुम्हार है, छात्र कांच समान


गढ़ि गढ़ि काढ़े रूपि दे, फेरे आपन प्राण।”
किंतु जब यही गुरु कांच को तोड़ने लगे, उसे खरोंचने लगे, और संस्कारों की जगह उसे डर और अपमान दे, तब? तब वह ‘गुरु’ नहीं, व्यवस्था पर धब्बा बन जाता है।
उत्तरकाशी के राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में दो असिस्टेंट प्रोफेसर – डॉ. मनीष सेमवाल (चित्रकला) और डॉ. रमेश सिंह (इतिहास) – पर छात्राओं ने जो गंभीर आरोप लगाए हैं, वे केवल कॉलेज तक सीमित नहीं हैं। वे समूचे उत्तराखंड की उच्च शिक्षा व्यवस्था के नैतिक पतन का संकेत हैं। आरोप केवल छेड़छाड़ और अभद्रता के नहीं हैं, बल्कि डॉ. रमेश सिंह पर बाबा साहब अंबेडकर जयंती जैसे गरिमामयी कार्यक्रम में व्यवधान डालने का भी आरोप है। यह केवल छात्राओं का अपमान नहीं, बल्कि संविधान और सामाजिक न्याय के मूल सिद्धांतों की अवहेलना है।
क्या सिर्फ ट्रांसफर से हो जाएगी न्याय की पूर्ति?
शासन ने इन शिक्षकों को “सजा” के तौर पर उत्तरकाशी से हटाकर कुमाऊं मंडल के महाविद्यालयों में संबद्ध कर दिया है। यह दंड नहीं, स्थानांतरण से सम्मानजनक पलायन है। क्या यही व्यवस्था का उत्तर है? क्या किसी कर्मचारी के विरुद्ध यदि छेड़छाड़, मानसिक उत्पीड़न या सामाजिक अवमानना के आरोप लगें, तो उसका समाधान बस यह हो कि उसे दूसरे शहर भेज दिया जाए?
डॉ. रमेश सिंह की पत्नी डॉ. विनीता (राजनीति विज्ञान) को भी साथ ही उसी महाविद्यालय में भेजना क्या एक संयोग है, या फिर एक सुविधाजनक सांठगांठ?
राज्य आंदोलन का सपना क्या यही था?
उत्तराखंड राज्य का निर्माण भ्रष्टाचार-मुक्त, नैतिक और संवेदनशील प्रशासन की कल्पना के साथ हुआ था। महिलाएं, छात्राएं, माताएं, बहनें – यही तो थीं उत्तराखंड आंदोलन की सबसे बड़ी शक्ति। उनके अधिकार, उनकी सुरक्षा, और उनकी अस्मिता का सपना लेकर ही राज्य की नींव रखी गई थी।
लेकिन आज, उन्हीं छात्राओं की आवाजें जब उच्च शिक्षा संस्थानों में कुचली जाती हैं, और आरोपित शिक्षक मात्र स्थानांतरित कर दिए जाते हैं – तो यह सीधा राज्य आंदोलन की आत्मा पर कुठाराघात है।
क्यों जरूरी है बर्खास्तगी?
- नैतिक मानक स्थापित करने के लिए: अगर ऐसे मामलों में बर्खास्तगी न हुई, तो शिक्षा संस्थानों में गलत परंपरा स्थापित होगी – कि आरोपों के बावजूद नौकरी बची रहेगी।
- अन्य छात्राओं को भरोसा देने के लिए: छात्राएं तभी सामने आएंगी जब उन्हें लगेगा कि सरकार और समाज उनके साथ है।
- शिक्षा व्यवस्था की गरिमा बचाने के लिए: कॉलेज, विश्वविद्यालय ज्ञान और संस्कार के मंदिर हैं, वहाँ ऐसे ‘कलंकित आचरण’ का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
छोटे तबादलों से नहीं बदलेगा माहौल
उत्तराखंड में इससे पहले भी कई मामले सामने आ चुके हैं – हरिद्वार, हल्द्वानी, पिथौरागढ़ जैसे शहरों से लगातार छात्राओं के साथ बदसलूकी की खबरें आती रही हैं। लेकिन शासन-प्रशासन की नीति वही ढाक के तीन पात – “तबादला करो, मामला ठंडा करो”।
यह न सिर्फ छात्राओं के साहस का अपमान है, बल्कि समाज को यह संदेश देता है कि सत्ता आरोपियों के साथ खड़ी है, पीड़ितों के नहीं।
एक दृढ़, नैतिक उदाहरण बनाइए
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को चाहिए कि वे इन मामलों पर निजी संज्ञान लें और यह सुनिश्चित करें कि दोषियों को नौकरी से बर्खास्त किया जाए, ताकि उत्तराखंड की बेटियों को यह भरोसा हो कि उनका राज्य अभी भी उनकी अस्मिता के लिए प्रतिबद्ध है।
क्या शासन यह गारंटी दे सकता है कि जो शिक्षक आज कपकोट या बलुआकोट भेजे गए हैं, वे वहां छात्राओं के साथ ऐसा आचरण नहीं करेंगे? क्या उनके ट्रांसफर से उनका चरित्र बदल जाएगा?
समाप्ति की ओर एक सवाल
जब राज्य आंदोलन के शहीदों ने अपने प्राण न्योछावर किए, तब क्या उनके सपनों में ऐसी शिक्षा व्यवस्था थी? उत्तर है – नहीं।
अब यह उत्तराखंड सरकार के विवेक पर है कि वह राज्य आंदोलन की चेतना के पक्ष में खड़ी होती है या केवल आरोपियों की सुविधा के साथ।
**यह समय है फैसले का, और वह फैसला स्पष्ट होना चाहिए –
छेड़छाड़ करने वाले शिक्षकों को तुरंत बर्खास्त किया जाए।
