
तुर्की एक ऐसा राष्ट्र है, जो किसी न किसी वजह से विवादों में बना रहता है लेकिन एक विवाद ऐसा है जिसके छींटे सौ साल बाद भी उस यदा-कदा पड़ते ही रहते हैं. तुर्की इस विवाद को स्वीकार नहीं करता जबकि दुनिया के तीन दर्जन देश उस दुस्साहसिक वारदात को मान्यता दे चुके हैं.


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
साल 2021 में अमेरिका ने भी मान्यता दी तो तुर्की खफा हो गया लेकिन जो बाइडेन नहीं माने. यह दुस्साहसिक वारदात कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी बल्कि दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार था, जिसकी चर्चा आज भी दुनिया के किसी न किसी हिस्से में होती ही रहती है.
मौत के घाट उतारे 15 लाख आर्मेनियाई लोगों की कहानी
इस नरसंहार में करीब 15 लाख अर्मेनिआई नागरिक मारे गए थे. किसी को फांसी पर लटकाया गया तो किसी को रेगिस्तान में पैदल मार्च करवा दिया गया. लोग भूख-प्यास से भी मर गए. करीब दो साल लगातार चले इस नरसंहार की कालिख वर्तमान में तुर्की और तबके आटोमन साम्राज्य के सिर पर पुती हुई है. पूरी दुनिया की निंदा झेलने के बावजूद तुर्की ने आज तक उस घटना को नरसंहार के रूप में न तो स्वीकार किया है और न ही किसी तरह का अफसोस व्यक्त किया है. हां, तुर्की मौतें स्वीकार करता है लेकिन संख्या पर उसे एतराज है और नरसंहार कहे जाने पर तो जबरदस्त आपत्ति है.
यहूदियों के बाद दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार
इस नरसंहार की शुरुआत 24 अप्रैल 1915 मानी जाती है जब ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानी साम्राज्य) के कर्ता-धर्ताओं ने 20 वीं सदी के इस सबसे भयानक घटना को लंबे समय तक अंजाम दिया था. इसमें करीब 15 लाख अर्मेनिआई ईसाई समुदाय के बड़े, बूढ़े, बच्चे और महिलाओं की हत्याएं की गईं. लूट, बलात्कार भी हुए. छोटे-छोटे बच्चों को रेगिस्तान में भूख से तड़पता हुआ छोड़ दिया गया और वे सब वहीं तड़प कर मर गए.
उस समय यह ईसाई समुदाय के लोग अल्पसंख्यक थे. पढे-लिखे और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यह नरसंहार भी अलग ही लेवल पर चल रहा था. अब तक दुनिया में जितने भी नरसंहार हुए हैं, उसमें सबसे बड़ा नरसंहार यहूदियों का हुआ था, जिसमें हिटलर ने नियोजित तरीके से करीब 60 लाख यहूदियों को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मार दिया था. दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार अर्मेनिआई लोगों का माना गया.
पूरे उफान पर था आटोमन साम्राज्य
19 वीं सदी में आटोमन यानि उस्मानी साम्राज्य पूरे उफान पर था. शासक जो कह देते वही अंतिम आदेश मान लिया जाता. उधर, आमजन जागरूक भी हो रहे थे. उस दौर में आर्मेनिआई लोग प्रमुख रूप से अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय से थे. उस समय यह राष्ट्र मुस्लिम बहुल जरूर था लेकिन अन्य धर्मों के लोग भी यहां रहते थे. समय आगे बढ़ा तो लोगों में राष्ट्रवादी भावनाएं उफान मारने लगीं. गैर-मुस्लिम लोगों के प्रति संदेह पनपने लगा. यह 19 वीं सदी का अंत और 20 वीं सदी की शुरुआत की बात है.
ईसाई समुदाय के लोगों ने भी इसे महसूस किया और वे विरोध करने के इरादे से बैठकें करने लगे. अपनी आवाज उठाने लगे इससे तुर्की में डर पैदा हुआ. इसकी सूचना शासकों तक पहुंची तो 24 अप्रैल 1915 को अचानक अंकारा में हजारों की संख्या में अर्मेनियाई बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार कर लिया गया. यहीं से आर्मेनिआई लोगों को सताने की जो शुरुआत हुई वह, दो साल से अधिक चलती रही.
दो चरणों में हुआ 20 वीं सदी का पहला नरसंहार
ऑटोमन साम्राज्य का मानना था कि अर्मेनिआई ईसाई सोवियत रूस के साथ हैं यानी अपने शासकों के खिलाफ हैं. बस इसी संदेह में गिरफ्तार हजारों लोगों की हत्याएं शुरू हो गईं. कत्लेआम से कोहराम मच गया. इस तरह नियोजित कत्ले-आम साल 1915 में शुरू होकर साल 1917 यानी करीब दो वर्ष तक चला. जो जहां मिला उसे वहीं मार दिया गया. खूब खून-खराबा हुआ. नरसंहार दो चरण में किया गया और यह सब शासकों के इशारे पर चला. पहले पुरुषों को खोज-खोज कर मारा गया.
फिर बारी आई महिलाओं और छोटे-छोटे बच्चों की, जिन्हें मारने की बेहद कष्टकारी तरीका तब के अफसरों ने सोचा. पुरुष बचें नहीं तो महिलायें-बच्चे जान बचाने को इधर से उधर भागने लगे. तब इनके साथ लूटपाट होती. महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार हुए. गांव के गांव जला दिए गए. फिर इन्हें सीरिया और अरब के रेगिस्तान में जबरन चलते रहने के लिए भेज दिया गया, जहाँ हजारों बुजुर्ग, महिलायें, बच्चे भूख-प्यास से मौत के मुंह में चले गए. इतिहास इसे डेथ मार्च के रूप में रेखांकित करता है. शासक उन्हें तड़पते हुए देखते लेकिन किसी भी तरह की मदद नहीं दी जाती. वस्तुतः उन्हें मरने के लिए ही रेगिस्तान मार्च के लिए भेजा गया.
विश्व समुदाय ने नरसंहार कहा तो तुर्की ने कभी स्वीकार नहीं किया
विश्व के अनेक बड़े देशों फ्रांस, जर्मनी, कनाडा समेत कोई तीन दर्जन देश इस वीभत्स हादसे को नरसंहार के रूप में मानते हैं. अमेरिका ने तो साल 2021 में इसे आर्मेनिआई नरसंहार के रूप में मान्यता दी. तुर्की के अनेक प्रयास के बावजूद राष्ट्रपति बाइडेन नहीं माने और उस हादसे को नरसंहार के रूप में माना. अमेरिका की इस पहल से तुर्की नाराज हुआ लेकिन बाइडेन पर उसका कोई असर नहीं पड़ा. उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक अभी तक भारत ने उस हादसे पर कुछ नहीं कहा है. लेकिन देश में जिस तरीके से आमजन का विरोध सामने आ रहा है, कोई बड़ी बात नहीं कि भारत भी अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी के साथ लाइन में खड़ा मिले. क्योंकि तुर्की ने उसकी मदद का इनाम पाकिस्तान को हथियार, गोला-बारूद देकर कर दिया है. तुर्की इसे लगभग 110 साल बाद भी नरसंहार नहीं मानता. तुर्की का तर्क है कि आर्मेनियाई लोग ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ रूस के साथ मिलकर साजिश रच रहे थे. युद्ध के बीच इनकी मौतें हिन न कि नरसंहार की वजह से. तुर्की यह भी कहता है कि 15 लाख मौतों का दावा भी ठीक नहीं है.
अब एक स्वतंत्र देश है अर्मेनिया
पूरी दुनिया में मौजूद अर्मेनिआई प्रवासी 24 अप्रैल को इस नरसंहार के रूप में याद करते हैं. अर्मेनिया अब एक स्वतंत्र देश है, जो कभी सोवियत संघ का एक राज्य हुआ करता था. सोवियत संघ के विघटन के समय 23 अगस्त 1990 को इसे आजादी मिली लेकिन इसकी स्थापना की घोषणा 21 सितंबर 1991 को हुई. इसी साल 25 दिसंबर को इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली. इसकी राजधानी एरेवन है. अब यह एक शांति प्रिय देश के रूप में दुनिया के सामने है. यह देश 10 प्रांतों में विभक्त है.

