
उत्तराखंड,मुख्यमंत्री धामी ने बैठक के दौरान अधिकारियों को ये निर्देश देते हुए कहा कि नंदा राजजात यात्रा के भव्य आयोजन के लिए सभी विभाग आपसी ताल मेल के साथ काम करें. साथ ही सीएम ने यात्रा की बेहतर व्यवस्थाओं के लिए जन प्रतिनिधियों, नंदा राजजात यात्रा समिति के सदस्यों और हितधारकों से सुझाव लेने को कहा. आइए इस यात्रा के बारे में और जानते हैं.


इस यात्रा का इतिहास क्या है?
नंदादेवी राजजात यात्रा विश्व की सबसे लंबी और कठिन पैदल धार्मिक यात्रा है. उत्तराखंड के लोग बताते हैं कि ये यात्रा मां नंदा को उनकी ससुराल कैलाश भेजने की यात्रा होती है. लोक-इतिहास के अनुसार मां नंदा देवी गढ़वाल के राजाओं और कुमाऊं के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थीं. इसलिए गढ़वाल और कुमाऊं के लोग मां नंदा को अपना इष्ट मानते हैं.
कुछ लोगों का कहना है कि मां नंदा पार्वती की बहन हैं, जबकि वहीं कुछ लोग कहते हैं कि पार्वती ही नंदा देवी है, लेकिन कहा जाता है कि मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी पर्वती का रूप ही माना जाता है. मां नंदा को शुभानंदा, शिवा नाम से भी पुकारा जाता है.
कहा जाता है कि एक बार मां नंदा अपने मायके आई थीं, लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 साल तक ससुराल नहीं जा सकीं. फिर बाद में मां नंदा को बड़े ही आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया, जिसके बाद से ही इस यात्रा का चलन शुरू हुआ. मां नंदा का चमोली जिले में पट्टी चांदपुर और श्रीगुरु क्षेत्र को मां नंदा का मायका और बधाण क्षेत्र (नंदाक क्षेत्र) को उनकी ससुराल माना जाता है.
12 साल में एक बार निकाली जाती है यात्रा
कहा जाता है कि हर 12 साल के बाद मां नंदा देवी राजजात यात्रा का आयोजन किया जाता है. 12 साल में आयोजित होने वाली राजजात नौटी से शुरू होती है. कुरुड़, अल्मोड़ा, कटारमल, नैनीताल और कुमाऊं, गढ़वाल के कई और गांवों कस्बों से निकलने वाली डोलियां, छंतोलियां नन्दकेशरी आकर राजजात का हिस्सा बनती हैं. इस यात्रा में होमकुंड तक 250 किमी से ज्यादा की दूरी पैदल तय की जाती है.
चार सींग वाला बकरा करता है यात्रा का नेतृत्व
इस यात्रा का नेतृत्व चौशींग्या खाडू (चार सींग वाला बकरा) करता है. इसे मां नंदा का सहायक माना जाता है. कहा जाता है कि यह चार सिंह वाला बकरा हर 12 साल बाद ही जन्म लेता है. यात्रा से पहले इस चौशींग्या की तलाशा भी शुरू हो जाती है. चौशींग्या इस यात्रा में अहम भूमिका निभाता है. यात्रा के दौरान इसकी पीठ पर थैलों में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व और चीजें देवी को भेंट करने वाली चीजें रखते हैं. उसके बाद चौशींग्या खाडू होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है. नंदा देव की यात्रा अब तक 10 बार हो चुकी हैं. हिमालय क्षेत्र का यह महाकुंभ साल 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987, 2000 और 2014 हो चुकी है. नंदा देवी की अगली यात्रा 2026 में होगी.
कैसे की जाती है मां नंदा की पूजा?
यात्रा की शुरुआत नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाडू) की पूजी से होती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा किया जाता है.
