
रुद्रपुर उत्तराखंड राज्य सरकारों की ओर से शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जब केंद्र पोषित योजनाएं लागू की जाती हैं, तो उनकी मूल भावना यही होती है कि समाज के पिछड़े और वंचित तबकों को समान अवसर मिल सके। परंतु उत्तराखंड में अल्पसंख्यक छात्रवृत्ति योजना में जो गड़बड़ियां सामने आई हैं, वह न केवल प्रशासनिक लापरवाही का परिचायक हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि किस तरह भ्रष्टाचार की दीमक सामाजिक न्याय की नींव को खोखला कर रही है।


चार जिलों—ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार, नैनीताल और रुद्रप्रयाग—के 17 संस्थानों में 1058 अपात्र छात्रों को लगभग 91 लाख रुपये की छात्रवृत्ति गलत तरीके से दी गई। यह आंकड़ा केवल किसी वित्तीय घोटाले का नहीं, बल्कि यह उस नैतिक पतन का प्रतीक है जिसमें शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र को भी छोड़ नहीं दिया गया है। कुछ मामलों में तो छात्र ही मौजूद नहीं थे, और उनके नाम पर छात्रवृत्तियाँ वितरित कर दी गईं। कहीं अपात्र छात्रों को लाभ पहुंचाया गया, तो कहीं दस्तावेजों की हेराफेरी कर सरकारी पैसों को लूटा गया।
इस मामले की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि केंद्र सरकार को राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल पर आंकड़ों की समीक्षा के दौरान ही अनियमितताओं की आशंका हुई और उन्होंने राज्य शासन को मार्च व मई माह में पत्र लिखकर जांच की मांग की। इसके बाद राज्य सरकार को जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में जांच समिति बनानी पड़ी। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह सक्रियता पहले नहीं होनी चाहिए थी? क्या शासन और प्रशासन को इतनी बड़ी अनियमितता तब तक दिखती ही नहीं जब तक दिल्ली से फटकार न लगे?
इस घोटाले में दोषी संस्थानों की संख्या भले अभी 17 मानी जा रही हो, परंतु केंद्रीय मंत्रालय ने जिन 92 संस्थानों को संदिग्ध बताया है, उनसे जुड़े आंकड़ों की गहराई से पड़ताल अभी बाकी है। यदि इस मामले को सतही रूप में निपटाया गया, तो यह पूरी छात्रवृत्ति प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा देगा। ऐसे में यह अनिवार्य है कि शासन सिर्फ प्राथमिकी दर्ज कर खानापूर्ति न करे, बल्कि इन संस्थानों की मान्यता रद्द करने तक की कार्रवाई की जाए और दोषियों से वसूली भी सुनिश्चित की जाए।
यह भी विचारणीय है कि यह घोटाला केवल पैसे का नहीं, बल्कि वंचितों के अधिकार छीनने का है। जिन वास्तविक अल्पसंख्यक छात्रों को यह छात्रवृत्ति मिलनी चाहिए थी, उन्हें इससे वंचित कर दिया गया। इस सामाजिक अन्याय की भरपाई कोई आर्थिक जुर्माना नहीं कर सकता। यह उन बच्चों की आशाओं और संघर्षों से छल है, जिनके लिए यह छात्रवृत्ति उनकी शिक्षा की अंतिम डोर थी।
यह प्रकरण उत्तराखंड सरकार और उसके शिक्षा व अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के लिए चेतावनी है कि अब महज योजनाएं बनाना और उन्हें पोर्टल पर अपलोड कर देना काफी नहीं होगा। निगरानी तंत्र को मजबूत करना होगा। छात्रवृत्ति जैसी योजनाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। हर जिले में एक स्वतंत्र छात्रवृत्ति निगरानी समिति गठित होनी चाहिए जिसमें पत्रकार, समाजसेवी, शिक्षाविद और स्थानीय जनप्रतिनिधि भी शामिल हों।
आज जब पूरा देश डिजिटल ट्रैकिंग, आधार आधारित सत्यापन, और पोर्टल आधारित पारदर्शिता की बात कर रहा है, तब इस प्रकार की अनियमितता यह सिद्ध करती है कि प्रणाली के भीतर कहीं न कहीं शातिर दिमाग अब भी मौजूद हैं जो टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके घोटाले को और अधिक ‘स्मार्ट’ बना रहे हैं।
अंततः, यह प्रकरण केवल जांच रिपोर्ट और पुलिस FIR तक सीमित न रह जाए। यह एक अवसर है उस सोच को बदलने का, जो समाज के सबसे कमजोर वर्गों की योजनाओं को भी ‘लूट का जरिया’ समझती है। यदि आज यह बदलाव नहीं लाया गया, तो कल शिक्षा से वंचित रह जाने वाले हजारों गरीब छात्र, देश के भविष्य नहीं, व्यवस्था के पीड़ित बनेंगे।
– अवतार सिंह बिष्ट
वरिष्ठ संपादक, शैल ग्लोबल टाइम्स
रुद्रपुर, उत्तराखंड
